शनिवार, 27 दिसंबर 2008

देशभक्ति का ज्वार-भाटा...


युद्ध का उन्माद आजकल हरतरफ नज़र आ रहा है. पाकिस्तान ने अपनी पलटन सीमाओं की तरफ भेजनी शुरू की..तो भारत में हलचल मच गई. मीडिया ने इस ख़बर को सर आंखों पर उठा लिया. कहीं दोनों देशों की सैनिक ताक़त की तुलना की जाने लगी...तो कहीं ये बताया जाने लगा कि युद्ध होने पर पाकिस्तान कितने दिन में मिट जाएगा? लोगों को ऐसी ख़बरें भाती हैं...लेकिन बस इतनी सी नहीं...उन्हें सतही जानकारियों के अलावा कुछ और देखने और सुनने को चाहिए..जो फिलहाल नहीं मिल रहा. ख़बरों से गहराई नदारद है. ऐसी पत्र-पत्रिकाओं की भी कमी पड़ गई है जिसमें तथ्यात्मक विवरण प्रकाशित होते हों.

ऐसे में युद्ध की आशंकाओँ की मार्केटिंग हो रही है. एक देश के रूप में हम अपना गौरव-गान चाहे जितना करते हों...बहुत हद तक तल्ख सच्चाई ये है कि आम नागरिकों के ख़ून में देशभक्ति एक मौसमी ज्वार की तरह आता है और भाटे की तरह चला जाता है. इसकी भी कोई तयशुदा मियाद भी नहीं है. ये ज्वार दरअसल आता नहीं है बल्कि लाया जाता है...और ये काम करता है मीडिया. इन दिनों यही हो रहा है.

सेना में हर पद पर लोगों की भारी कमी है. जवान से लेकर अधिकारी तक की किल्लत है. लेकिन इसकी याद तब आएगी जब युद्ध के दौरान हमें खामियाजा भुगतना पड़ेगा. तब लोग ख़ूब चिल्लाएंगे...ऊंची आवाज़ में ये बताने की प्रतिस्पर्द्धा होगी कि हमारे अंदर कहां कमी थी.

आप सभी को याद होगा कि कारगिल युद्ध के दौरान हमारे पास शहीद जवानों के शवों को उनके घर पहुंचाने के लिए बक्से ही नहीं थे. तब आनन-फानन में मुंहमांगी क़ीमत पर रातों-रात इसे इज़रायल से मंगवाया गया. इसको लेकर भी तत्कालीन रक्षामंत्री पर घोटाले के आरोप लगे. सच क्या था भगवान जाने...पर चूक तो साफ नज़र आ गई कि हम आपात स्थितियों के लिए कितना सावधान रहते हैं.

अभी वक़्त है कि हम अपनी कमियों को दुरुस्त कर लें...ये ज़िम्मेदारी अकेले रक्षा मंत्रालय, अधिकारी और नेताओं की नहीं है बल्कि मीडिया की भी उतनी ही है.

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

नासमझ कौन है?


लगातार पांचवें हफ्ते महंगाई की दर गिरावट पर है. इस ख़बर ने मनमोहन सिंह को बड़ी राहत दी होगी. विधानसभा चुनाव के नतीजों की वजह से नींद ऐसे भी अच्छी आ रही थी,...अब और सुकून मिला होगा. .पीएम को पहले डर रहा होगा कि कहीं आम लोग बेलगाम क़ीमतों से प्रभावित होकर कांग्रेस नीत सरकार के ख़िलाफ वोट न डाल दें....लेकिन ये आशंका अब ख़त्म हो गई होगी. अब पीएम मान के चल रहे होंगे कि आम लोगों को उनकी गंभीर कोशिशें भा गईं. लोगों ने ये समझ लिया कि सरकार को जो करना था वो कर रही है...और बहुत कर रही है. उन्हें तो यही लग रहा होगा कि जनता के सोचने का स्तर ऊंचा उठ गया है...वो उनकी बेबसी समझ रही होगी...उसे भी पता है कि ओपेक देश तेल की क़ीमतों को कम करने की गुहार नहीं सुनते...वो अपने लिहाज से काम करते हैं.

हम कोई हवाई क़िले बांधने की कोशिश नहीं कर रहे. बल्कि पीएम और उनके सहयोगियों की कार्यशैली के आधार पर उनकी वर्तमान मन:स्थिति का अंदाज़ा लगा रहे हैं. आप पूछेंगे कि एक व्यक्ति विशेष के मन के बारे में सपाट ढंग से ऐसा कैसे कहा जा सकता है. आपका कहना बिल्कुल ठीक है...इसलिए हमने कहा...ऐसी कोशिश कर रहे हैं.

चलिए मुद्दे पर आते हैं. भारत में शहर हों या गांव,...अगर एक औसत मतदाता की बात करें तो ज़्यादातर को ये पता भी नहीं होगा कि ये महंगाई दर कम कैसे हो रही है. कोई जानने की कोशिश भी नहीं करता...करता है तो भी समझ नहीं पता. अरे भई! जब सारी चीज़ें महंगी हैं तो फिर ये महंगाई की दर नीचे कैसे जा रही है... और अगर दुनिया भर के उतार-चढ़ाव के कारण ऐसा हो रहा है तो हम इसे महंगाई का अपना मीटर क्यों मानें. और ये जो मीटर है...वो भी हफ्ते दो हफ्ते पीछे का होता है....ठीक-ठीक याद रखना भी मुश्किल. मान लीजिए हफ्ते-पखवाड़े भर पहले महंगाई जितनी थी...उसका परिणाम ये महंगाई का मीटर मौजूदा वक़्त में बताता है...तो फिर इसका हिसाब रखने का मतलब क्या है.

अब अगर क्रूड ऑयल के सस्ता होने से भारत में महंगाई की दर गिर गई...तो इसमें सरकार काहे का ढोल पीट रही है. पहले तो सब कह रहे थे...हमारा दोष नहीं है...हम क्या कर सकते हैं....हमारे वश की बात नहीं है...तो फिर अब इसके पीछे सरकार की गंभीर कोशिशों को श्रेय देने की बात कहां से आ गई. ख़तरा ये भी बरक़रार है कि जुलाई के बाद चार महीनों में तिहाई क़ीमत पर आया कच्चे तेल का दाम अगर अगले चार महीनों में फिर ऊपर चढ़ गया तो क्या होगा ?

अब..जनता परिपक्व हो रही है या देश के कर्ता-धर्ता और भी नासमझ....ये बात समझना मुश्किल नहीं.

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

पत्रकारिता के दरबार में सिद्धांतों का चीर-हरण


महाभारत की कहानी सबको याद होगी. युद्धिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता था. इसलिए क्योंकि वो सत्यवादी थे, न्यायप्रिय थे,...उनके चारों अनुज एक से बढ़कर एक थे. कोई महाबलशाली तो कोई धनुर्धर. बावजूद इसके इन पांचों की पत्नियां भरे दरबार में नंगी की जाती रही और वे कुछ नहीं कर सके. इसलिए नहीं कि इन पांडु पुत्रों में क्षमता नहीं थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'धर्मराज' युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाने का फ़ैसला ख़ुद किया था....और वो ठहरे नीतिवान..इसलिए बाज़ी हारने के बाद दु:शासन का विरोध न करने को वो ज़्यादा नीतिसंगत मानते थे. बाक़ी के चारों अनुजों का ख़ून खौल रहा था...लेकिन उन्हें बड़े भाई के हर आदेश का पालन करना द्रौपदी की इज़्ज़त बचाने से ज़्यादा सही लगा. आगे क्या हुआ...सभी जानते हैं...अवतारी कृष्ण न होते तो हस्तिनापुर के दरबार के उस हाल-ए-बयां को लिखने में महर्षि वेदब्यास की उंगलियां भी कांप जातीं...और ये भारत के सभी महाकाव्यों का सबसे शर्मनाक अध्याय होता. धर्म की दृष्टि से...पौरुष की दृष्टि से और न्याय की दृष्टि से भी.

बाद में महाभारत की लड़ाई हुई..और..इसमें जीत हासिल करने के लिए 'धर्मराज' ने झूठ का भी सहारा लिया...तो क्या धर्मराज के विचार परिवर्तित हो गए थे...या उनके 'नीतिसंगत' दृष्टिकोण के मुताबिक़ विशेष अवसरों पर झूठ बोलना सही था. मुझे आज भी ये बात मथती है कि युद्धिष्ठिर ने अपमान की पराकाष्ठा के वक़्त नीति-अनीति पर किस तरह से विचार किया...और किया तो उन्हें धृतराष्ट्र पुत्रों का विरोध सही क्यों नहीं लगा.

महाभारत धारावाहिक में मैंने ये सब देखा था...तब स्कूल में पढ़ता था...चौथी या पांचवीं में था. आज लगभग सत्रह-अठारह साल बाद ये बातें याद आ रही हैं...ये मन को बुरी तरह मथ रही हैं. पत्रकारिता में चार साल से हूं पर पिछले कुछ महीनों के अनुभव जीवन भर याद रहने वाले हैं. सोचने को ये विवश करेंगे.

दिनकर की कविताओं में कहीं पढ़ा था...'हो चाहे जहां अनय..उसको रोको रे...यदि ग़लती करें..शशि-सूर्य उन्हें टोको रे'. इन शब्द-युग्मों का मतलब मुझे पत्रकारिता समझ में आया था. पत्रकारिता से रोटी कमाने का फ़ैसला मेरा अपना था. मुझे लगता था अपने स्वाभाविक गुणों का इस्तेमाल मैं इसके सिवाय कहीं और नहीं कर सकता. लेकिन काम के दौरान हासिल हो रहे अनुभवों से महसूस कर रहा हूं कि पत्रकारिता के लिए जो गुण मुझे स्वाभाविक और बेहद ज़रूरी लगते थे....दरअसल वो इस पेशे में अब अवांछित माने जाने लगे हैं. जैसे हर ग़लत बात का विरोध करना.

महाभारत की पृष्ठभूमि में कहूं तो पत्रकारिता के दरबार में सिद्धांतों का चीर-हरण हो रहा है...और धर्मराज (वरिष्ठ पत्रकार) उसी तरह सर झुकाए बैठे हैं...उनके अनुजों की राह भी पुरानी है. महाबलशाली,...धनुर्धर..कुरूपुत्रों को सबक़ सिखाने की क्षमता रखने वाले अनुजों के कथानक बदले नहीं हैं. वे हर आदेश बजाने को तैयार हैं..सब कुछ सहने को तैयार हैं. धर्मराज युद्धिष्ठिर ने ये सब नीति के पालन के नाम पर किया था और करवाया था...वर्तमान में ये प्रोफेशनलिज़्म के नाम पर किया जा रहा है. उदाहरण गिनाने से क्या होगा. बस पात्र बदल जाएंगे...सब जगहों की कहानी तो यही है. सोच रहा हूं...लोग पत्रकार क्यों बनते हैं...अगर मक़सद रसूख़ हासिल करना होता है तो तलवार की जगह कलम को क्यों चुनते हैं...अगर चुनते हैं तो फिर लड़ते क्यों नहीं..हथियार क्यों डाल देते हैं.

स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर सच कहने पर पूरी दुनिया भी ख़िलाफ हो जाय तो मत झुको. तन कर खड़े रहो. सामना करो. पहले उपेक्षा,..फिर अनुसरण,..आगे प्रशंसा..अंत में तुम्हें स्वीकृति मिलेगी. हमारे अग्रज ये राह अपनाने की शुरूआत करें तो स्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी. कलयुग है...द्वापर की तरह कोई कृष्ण तो आने से रहे....इसलिए दांव पर लगाने के बाद भी द्रौपदी की इज़्ज़त हमें ही बचानी होगी. बाद में कुरूक्षेत्र की लड़ाई जीतने के लिए झूठ तो बोलना ही पड़ेगा...इसलिए धर्मराज के आदेश का इंतज़ार नहीं करिए...अर्जुन!,भीम!,नकुल!,सहदेव!...सुन रहे हैं ना..उठिए! अब बहुत देर हो गई है.

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

ये ख़बर थी कुछ अलग...


ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई
रात से सुबह हुई,....शाम यूं ही ढल गई
फिर अल्लसुबह से रात तक ..
कुछ नहीं बदल सका
धुएं की धुंध बीच का
मंज़र रहा दबा-दबा..
इस शहर की बानगी...अबके गांव तक पहुंच गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई

यूं जो छोड़ के चले,
हाथ जोड़ के चले
होठ बंद थे मगर,
बिन कहे भी कह चले
जी सको तो इस तरह,..मर सको तो इस तरह
मेरी तो आज ज़िंदगी,..मौत से संवर गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई

शनिवार, 29 नवंबर 2008

बिना ब्रेक के ख़बर.....


बहुत दिनों के बाद ये ख़बर बिना ब्रेक के थी. मुंबई पर हुआ आतंकी हमला ख़बरिया चैनलों को उनके सरोकारों की याद दिला गया....बहुत दिनों के बाद पत्रकारों को कुछ करने का संतोष मिला होगा. ये केवल एक आतंकी घटना को कवर करने की बात नहीं थी...ये एक मिशन था. मिशन एकजुटता का...मिशन मुश्किल वक़्त में देश को एक साथ खड़ा करने का. अपनों को खोने वालों को ये भरोसा दिलाने का...कि उनका दर्द सौ करोड़ लोगों का दर्द है. बुधवार,..26 नवंबर की रात से लेकर 28 की शाम तक और उसके बाद अगली सुबह शहीदों के अंतिम संस्कार तक....ख़बरें टूटी नहीं...और देश को एकजुट करती गईं...कुछ दिनों पहले सियासत ने मुंबई के बहाने देश को बांटने की कोशिश की थी....लेकिन मुंबई पर जब ख़तरा आया तो पूरा देश उठ खड़ा हुआ...

कोई काम कहीं भी कर रहा हो...इस ख़बर पर सबकी नज़र थी....सबने ख़ुद को ख़बरिया चैनलों के क़रीब बनाए रखने की कोशिश की. पूरा देश टकटकी लगाए देख रहा था. अब आगे क्या होगा....कोई नहीं जानता था..लेकिन जानना हर कोई चाहता था. भूत और भविष्य बताने वाले लोगों को लेकर जो आकर्षण होता है कुछ उसी तरह का भाव मीडिया के प्रति भी रहा है. ये मीडिया की ताक़त है...इसलिए क्योंकि वह वर्तमान की तस्वीर पेश करता है. इसलिए लाइव न्यूज़ के अलावा कुछ नहीं चला. एलेवंथ आवर शब्द का मिथक भी टूटा हुआ था.

ऐसा नहीं है कि ख़बरों की होड़ में टीआरपी कहीं पीछे छूटी हुई थी. हिंदी के सबसे बड़े टीआरपी मास्टर ने बुधवार की रात अपने ऑफिस में ही ग़ुज़ारी. उनके सामने मुश्किल विजुअल की थी. सो दूसरे चैनलों से काम चलाया गया. कीचड़ के खेल में दामन को सफेद बनाए रखने के लिए ऐसे हेडर लगाए गए कि दर्शकों की नज़र विजुअल्स पर अटके ही नहीं. और ये आइडिया काम भी कर गया...रात भर की मेहनत सुबह रंग लाई...जब एक कथित आतंकी का फोन दफ्तर में आया. और इसके बाद तो फिर पूछिए मत. चैनल के पास टीआरपी की होड़ में बने रहकर होटल ताज के सामने अपने संवाददाता को पहुंचाने का पूरा वक्त मिल गया. बाद में वहां उसकी ओबी वैन भी तैनात नज़र आई.

बाक़ी चैनलों में भी कहानी कुछ ऐसी ही थी. ताज होटल के सामने से कई चैनलों ने अपने कार्यक्रमों का लाइव प्रसारण किया. हिंदी के सबसे बुद्धिजीवी चैनल ने इस मौक़े पर साबित करने की कोशिश की कि उसे भी 'झनाक-झन' जैसे साउंड एफेक्ट के साथ पैकेजिंग करवानी आती है. शायद पहली बार उसने इस तरह के प्रयोग जमकर किए. ये पहली बार था कि इस चैनल ने ब्रेकिंग न्यूज़ फुल स्क्रीन टेक्स्ट के साथ दी.

अंग्रेज़ी चैनलों ने न केवल विजुअल्स ब्रेक किए..बल्कि ख़बरों को पेश करने के लिहाज से भी उन्हें दाद देनी होगी. नरीमन हाउस में एनएसजी की अंतिम कार्रवाई के दृश्य सबसे पहले एक अंग्रेज़ी चैनल पर ही दिखाए पड़े. उसके एंकर की भाषा एक आम भारतीय के जज़्बे को बयां कर रहे थे....आम लोगों के प्रति वही सरोकार...वही भाव-भंगिमा....अंग्रेज़ी चैनलों को जड़ से कटा हुआ बताने वालों को अब नए सिरे से सोचना होगा....

मीडिया ने इस बार अपनी बड़ी भूमिका अदा की है. नरीमन हाउस फतह कर लौट रहे जवानों को सलाम करते लोगों में पत्रकारों की बड़ी फौज थी. एक हाथ में चैनल का बूम लिए दूसरे से हाथ हिलाते ख़बरनवीस...आम लोग सांसे थामे ख़बरिया चैनलों को देख रहे थे. जहां ये चैनल आ रहे थे....बीच की दो रात किसी को भी नींद नहीं आई.

कई बार सुना....लोग कहा करते थे...इतने चैनलों को देखेगा कौन...होटल ताज से लेकर नरीमन हाउस में चली आतंक-विरोधी कार्रवाई की कवरेज ने इसका जवाब दे दिया है. जवाब ये...कि सौ करोड़ का देश सौ ख़बरिया चैनलों को आसानी से पचा सकता है. बशर्ते उसे पूरी ख़बर अलग नज़रिए से मिले. इस बार ख़बरिया चैनलों ने देश को जोड़ने की भी कोशिश की. दो दिन बाद सभी पुराने एजेंडे पर वापस लौट जाएंगे...लेकिन इससे इन दो दिनों की अहमियत कम नहीं होगी.

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

ये देश का दर्द है....


राहुल के मुर्दा शरीर को पुलिस के जवान उठाकर लिए जा रहे थे...चुपचाप देख रहा था मैं. मन में उलझन बड़ी थी....लग रहा था नैतिकता के व्यामोह में फंसकर तटस्थ रहने का अपराध कर रहा हूं...अगले ही पल देशहित और एकता की बात याद आई. महाराष्ट्र को देश की गौरवभूमि के रूप में देखता आया हूं....ये दृष्टि किसी व्यक्ति विशेष से कभी प्रभावित नहीं हो सकती. लेकिन दिल आज बेहद आहत है. एक बिहारी के रूप में राहुल की मौत का शोक मनाने का कोई मतलब नहीं है....ये देश भर का दर्द है.

राहुल!....हमें पता है कि घोर निराशा में तुझे कोई राह नज़र नहीं आई होगी...और तुम इस रास्ते पर चल पड़े....हमें पता है कि राज ठाकरे तुम्हारे आत्मसम्मान को धिक्कार रहा था...और तुमसे रहा नहीं गया...
हाथों में थामे पिस्तौल को भूल जाइए...उसके चेहरे को याद रखिए....एक स्वतंत्र देश के नागरिक के रूप में जीने की इच्छा उसकी भी रही होगी...और इसी वजह से उसकी जान गई.

बचपन से उसने आज़ादी का जश्न मनाया होगा....हर बार एक भारतीय के रूप में गर्व महसूस किया होगा....सीना तान के चलने वाले इस नौजवान ने जब बिहारियों को बिना दोष बार-बार लतियाते जाते देखा होगा...तो उसका ख़ून खौलना लाजिमी था. फर्क बस इतना था कि उसे ये भरोसा नहीं था कि राज ठाकरे के अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला देश में कोई बचा है...इसलिए उसने अपनी ताक़त पर ये लड़ाई लड़ने का फैसला किया...

प्रांतवाद के नाम पर राहुल को मारा गया....इसकी मुझे कोई वजह नज़र नहीं आती. राहुल की मौत हर किसी को हिलाने वाली है....ये एक बेरोज़गार की व्यथा है...ये चारों तरफ से गालियों की बौछार सुनने वाले प्रदेश का विद्रोह है....ये देश के दुश्मनों को अपनी बदौलत मिटा डालने के हौसले की कहानी है...राहुल की राह गलत थी....उसका साहस नहीं....उसका संदेश नहीं....

राज की जान लेने की कोई ज़रूरत नहीं...विरोध के रास्ते और भी हैं...लेकिन राष्ट्रहित को दांव पर लगाकर मराठा छत्रप बनने की दुराकांक्षा पालने वाले इस नेता के विरोध का इतना बड़ा साहस किसी ने पहली बार दिखाया है...राहुल की ग़लती बस इतनी थी कि वो देश के क़ानून को भूल गया था.

पुलिस के बारे में कुछ नहीं कहना...ये उसका चरित्र है....पुलिस को ऐसी स्थितियों से निबटने की न तो समझ है और न ही उसे कोई तरीक़ा ही नज़र आता है...चाहे वो महाराष्ट्र की हो या बिहार की.

नेता इसे राजनीतिक रंग न दें....कुछ करना है तो बिहार से महाराष्ट्र पहुंचकर वहां की जनता का साथ लें...राज ठाकरे को उसकी मांद में घुसकर बता दें कि देशहित की बात करने वाला असली शेर कौन है...देखें कि ये राज ठाकरे उनका क्या बिगाड़ता है...सब कुछ शांति से हो...विरोध पूरी तरह अहिंसक हो...तो महाराष्ट्र से खदेड़ दिए जाएंगे राज ठाकरे और उन्हें बचने की जगह बिहार में मिलेगी.

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

ये वानर कौन है?


लोग कह रहे हैं आज विजय दशमी है....तिथियों की गणना इस बात की तस्दीक कर रही है....रावण-दहन की औपचारिकता भी हर साल की तरह है...पर इस बार पता नहीं क्यों....मन से उल्लास नदारद है. मैं बीते रात देखे गए सपने को अब तक नहीं भूल पाया हूं....इसलिए मुझे तो जलने के बाद भी रावण अट्टहास करता नज़र आ रहा है....भय से सहमे लोगों के चेहरों पर उसकी छाया देख रहा हूं मैं...मेरी आंखें सुबह से ही खुली हैं...पर जो हक़ीक़त देख रहा हूं वो सपना लग रहा है....और सपना हक़ीक़त जान पड़ रहा है.. ....कल रात मैंने रावण से पूछा था कि वो इतना ख़ुश क्यों है.....उसने मुझे घूर कर देखा और हंस पड़ा.....मैंने अपना सवाल दुहराया...रावण ने कहा-धरती पर उसे कोई नहीं मार सकता....इसलिए क्योंकि ये सिर्फ राम के वश की बात है....अकेले वानरों के वश की बात नहीं. मैं सोच रहा था...ये वानर कौन है?

शनिवार, 27 सितंबर 2008

अब तो जागो देश मेरे...

दिल्ली में आतंकियों ने इस बार फूल बाज़ार में बम रखे...फिर हुआ धमाका...आगे की कहानी वही....जो हर बार की है. यही हालत है अपने देश की. आतंकियों के आगे बेबस सी दिखती है सरकार....सलीके से जीने को लेकर गृहमंत्री पर मज़े लेती मीडिया...खुफिया एजेंसियों की बाल की खाल निकालते कलमकार ...ऐसे ही चल रहा है अपना देश...

रोजी रोटी से अलग सोचने की महानगरों में किसे फुर्सत है. मुसीबत में एक होने का जज्बा न्यूज़ स्टोरी के पैकेज में ही अच्छा लगता है....पर हकीकत इससे बहुत अलग है. टुकड़ों में बंटी हमारी ज़िंदगी एक-दूसरे से इतना दूर कर जाती है,..कि देश के लिए सोचने की तरफ तो ध्यान भी नहीं जाता.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे में बड़ी ताक़त बनकर उभरता है. पर कुछ समय के लिए...उसके तेवर मौसमी हैं,...पलटबाज़ी करने में ,..रंग बदलने में उसका सानी नहीं...कब क्या कह जाय,...कब क्या कर जाय कुछ ठिकाना नहीं. हिंदी में शब्द है,...अन्मयस्क...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बिल्कुल सटीक बैठता है. रोज-रोज का बंदर नाच उसके अंदर की कहानी ख़ुद ब ख़ुद बता रहा है.

पैसों ने पत्रकारों के दिमाग को कुंद कर दिया है...बस पैकेज नज़र आ रहा है...इसलिए दुधारी गाय की दुलत्ती भी सही जा रही है. जो लिखा जा रहा है,..उसका मक़सद कुछ और है. जो दिखाया जा रहा है उसका मक़सद कुछ और है...तय है कि इसके केंद्र में देश नहीं.

उधर,..आतंकी..हैं...वे बेफिक्र हैं...वो धमाकों के बाद टीवी के सामने बैठकर लाशों की गिनती करते हैं...वे जानते हैं कि सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में सबकी ख़ैर कौन कर सकता है. कितने आतिफ को गोलियों से भूनोगे,...कितने तौक़ीर की तलाश करोगे,...पहले जान तो लो इनकी तादाद कितनी है.

इंडिया गेट पर पुलिस लगाओगे,..तो कनाट प्लेस के कूड़ेदान में करेंगे धमाके,....वहां पुलिस लगाओगे तो फूल बाज़ार में करेंगे धमाके,...सड़क-चौक-चौराहे,...कूड़ेदान,..फूलदान..देश में हर जगह पहरा नहीं बिठाया जा सकता है...मेरे भाई.

देश का नासूर क्या है,....वो साफ है. पर कोई सच बोलने की हिम्मत नहीं करता है. इसी देश में एक तरफ महेश चंद शर्मा को शहीद बताया जाता है,..तो दूसरी तरफ उनके बदन में गोलियां उतारने वालों के समर्थन में हज़ारों लोग खड़े होते हैं.

इनके लिए क्या कहें...पर कुछ तो कहना होगा. सच बोलने की शुरूआत करनी होगी. गुनिए..चुनिए...फिर बोलिए...वक्त यही है.....अब तो जागो देश मेरे.

शनिवार, 6 सितंबर 2008

इस बर्बादी के किरदार ?

हंसने-मुस्कुराने पर वक्त पाबंदी नहीं लगाता,..इसके मौक़े हर जगह हैं. पर कहीं-कहीं चाह कर भी आप हंस नहीं सकते,..विश्वास नहीं होता....तो कोसी के प्रलय से पीड़ित लोगों के पास पहुंचिए...चारों तरफ दर्द ही दर्द. दर्द बहुत गहरा है इसलिए चीख भी ऊंची है.

पानी से भरे गांव में ऊंची जगह बनी एक घर की छत पर पचास लोग शरण लिए हुए हैं,...चौदह दिन बीत गए,...जो कुछ बचा था,...लोगों ने आपस में बांटकर जिंदा रहने की कोशिश की...पर बीमार पड़े एक युवक को बचाया नहीं जा सका. उसकी लाश को जलाने के इंतज़ाम नहीं हैं,...कोई नाव नहीं,...मोटर बोट झांकने तक नहीं आई...आकाश के रास्ते भी राहत की गड़गड़ागट सुनाई नहीं पड़ी...ऐसे में लाश वहीं रखी है,..तीन दिन हो गए. बदबू आ रही है...दो दिनों से हो रही बारिश के बाद कई बीमार हो गए हैं....वे भूखे हैं,..गंदा पानी पी-पीकर अब तक बचे हैं,..पर शरीर अब जवाब दे रहा है.,,..ये एक संदेश है,.. सहरसा में मदद की गुहार कर रहे एक पिता ने अपने बेटे का दो दिन पुराना ये संदेश जब पत्रकारों को सुनाया,...तो सबके रोंगटे खड़े हो गए.

कोसी की धारा ने कई किंवदंतियों को बदल दिया है,...किस कदर तकलीफ झेलकर मनुष्य ज़िंदगी की लड़ाई लड़ता है,...इससे जुड़ी कहानियां उत्तर-पूर्वी बिहार के प्रभावित इलाक़ों में सैकड़ों लोगों की ज़ुबान पर है....आप सुन नहीं पाएंगे,...दर्द को साझा करने वाली आपकी भावनाएं जवाब दे जाएंगी.

बहुत कुछ बदल दिया है कोसी ने,,...जो नहीं होना चाहिए था,..वो भी किया है कोसी ने,...कोसी उद्दंड हो गई है,...या उसने अपने ऊपर की जा रही ज्यादतियों का जवाब दिया है,...उसकी थाह लेने में अभी देर लगेगी...पर इतना तय है कि इस बार....उसकी धारा ने बिहार को समाजवाद का पाठ पढ़ा दिया है,...गरीब का कुछ कर नहीं सकती थी,....सो,..अमीरों को ग़रीब बना दिया है. पर क्या यही रास्ता था ?

ये सवाल इस नदी से मत पूछिए,...पूछिए इसे बांधने वालों से,...सवाल कोसी भी पूछ रही है,...कि उसका मान-मर्दन होता रहा,... पर नदी के तीर बसने वाले चुप क्यों रहे. जवाब सोचिए,..कहीं इस बर्बादी के किरदार आप और हम भी तो नहीं?

बुधवार, 3 सितंबर 2008

ना ही मोरा गइंठी में एको रूपैया.....

हे जगदम्बा,..तू ही अवलम्बा,..तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,...न ही कोई हित,..न ही परतीत,..न ही मोरा गइंठी में एको रूपैया....ये एक गीत है. नदियों को देवी समझ पूजने वाली बिहार की महिलाएं बाढ़ की इस विपदा में इसे गा रही हैं. अपनों की जान सलामत रखने के लिए,..कर जोड़कर,..कर रही हैं विनती. माँ तेरा ही सहारा है,..कोई और सुध लेने वाला नहीं है,...न कोई अपना है,..न जान पड़ता है....गइंठी (साड़ी के पल्लू के छोर को बांधकर बनी झोली) में अब एक रूपया भी नहीं.

इस गीत में दर्द है..बेबसी है..अंतिम समर्पण है,..साथ तमाम आशंकाओं के बीच बची-खुची आशा भी है. पर सिर्फ भगवान से. बाढ़ पीड़ित समझ रहे हैं...कि क्या होने वाला है. तीस लाख से ज्यादा लोगों की उम्मीदें अब सिर्फ ऊपरवाले पर ही टिकी हैं.

लोग ज़िंदा इसलिए हैं क्योंकि वो मरना नहीं चाहते. चारों तरफ पानी. छत पर भूखे-प्यासे लोग पड़े हैं. बच्चों को चुप भी कराना है. ख़ुद को भी बचाकर रखना है.

हफ्ते भर बाद हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट सुनकर लगता है,...जैसे जान में जान आई. पर हेलीकॉप्टर राहत का सामान गिराए भी तो कहां,...छोटी सी छत पर अनगिनत लोग जमा हैं. ऐसे में राहत सामग्री पहुंचाई नहीं जा सकती.

हेलीकॉप्टर वापस लौट जाता है. फिर सुबह-सुबह सुनाई देती है,...मोटर बोट की आवाज़. नीचे आए बोट को देखकर आपाधापी मच जाती है. बच्चों को कांधे पे उठाए महिलाएं,..तेज़ी से नीचे उतरती हैं. कमर भर पानी में भी सरपट भागती हैं. रोती-चिल्लाती....अंतिम हथियार,....ताकि बोट तक सबसे पहले पहुंच जांय.

इतने लोगों के लिए बोट नाकाफी है,..अब क्या किया जाय. फिर ढाढ़स मिलता है,..हम जल्द आ रहे हैं.....पर इतना धीरज किसे है. ..बाक़ी बचे लोग कलपने लगते हैं. पर कोई चारा नहीं. अब अगली बारी कब आएगी. कोई नहीं जानता. तब तक कैसे जिएं लोग.

शौच तक की दिक्कत है. सालों ज़िंदगी जिस समाज में जी,...अचानक लाज-शर्म को कैसे छोड़े कोई. नीचे पानी ही पानी है...और यहां...लोग ही लोग....

बार-बार लोग सोचते हैं,..ये मौत से भी बदतर ज़िंदगी है. पर मरने की कोई नहीं सोचता...बच्चों का मुंह देख कर जीने का दिल करता है. ख़ुद के लिए नहीं इनके लिए.

बुज़ुर्गों का कोई पूछनहार नहीं. रोते हुए बच्चों के आगे वे अपनी भूख,...अपनी कमज़ोरी का ज़िक्र करने तक की हिम्मत नहीं करते. चुप रहते हैं. लोगों को हौसला क्या दें. उनका कौन सा अनुभव इस मुश्किल से उबरने का दूसरों को रास्ता दिखाएगा. वो तो पीड़ितों की संख्या बढ़ाने वाले अवांछित तत्व हो गए हैं.

वे बस गीत गा सकते हैं,....हे जगदम्बा....तू ही अवलम्बा.....तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,,....आस गए तेरी दासी हूं मैं प्रभु,..डूबल नाव तुम्ही हो खेवैया,...

सोमवार, 1 सितंबर 2008

ये कैसी राष्ट्रीय आपदा है ?

कभी-कभी ज़िंदगी से मौत बेहतर लगने लगती है. ये वो स्थिति है जब कुछ नहीं सूझता. कोई रास्ता नज़र नहीं आता. सब कुछ बर्बाद होते देखने के बाद जीने की इच्छा ख़त्म होने लगती है. उड़ीसा में साइक्लोन के बाद ज़िंदा बचे लोगों की कहानियां ऐसी ही थीं. तमिलनाडु में सूनामी के बाद सब कुछ गंवा चुके लोग मौत मांगते नज़र आए. ये त्रासदी के बाद का समां होता है. गुजरात में भूकंप के बाद प्रभावित लोगों की हालत ऐसी ही थी,... और अब बिहार.... कोसी के जलप्रलय के बाद की स्थिति ऐसी ही है.

पर तस्वीर कुछ अलग है. क्योंकि सौ करोड़ से अधिक लोगों का देश बाढ़ में फंसे अपने पचास लाख लोगों को बचाने के लिए चार हैलीकॉप्टर का जुगाड़ कर पाया है. क्योंकि बाढ़ में फंसे इन लोगों की मदद के लिए बमुश्किल दस लोगों को बिठाने वाले सौ मोटर बोट का इंतज़ाम कर पाया है हमारा देश.

राहत के इंतज़ाम के लिए राज्य सरकार ने मुस्तैदी न दिखाई होती. तो भगवान मालिक था. विश्वास करना मुश्किल है कि ये घोषित राष्ट्रीय आपदा है. मांगने पर ही सब मिले तो काहे की राष्ट्रीय आपदा. ये न तो साइक्लोन है और न सूनामी और न ही भूकंप. कुछ घंटों की जानलेवा आपदा नहीं है ये सैलाब. और न ही इसका असर तुरत-फुरत दिखेगा. प्रभावित इलाक़ों में लोग पीढ़ियों पीछे हो गए हैं.

उत्तर बिहार में बाढ़ इसलिए नहीं आती कि यहां बारिश ज्यादा होती है....इसलिए भी आती है क्योंकि यहां किसान रहते हैं. क्योंकि इनके पास आर्थिक ताक़त नहीं. इसलिए क्योंकि नेपाल के साथ यहां के लोगों का रोटी-बेटी का संबंध है. इसलिए क्योंकि यहां के लोग सामाजिक तौर पर सबसे ज्यादा जागरूक हैं. वे अकेले अपने हित के लिए नेपाल के साथ जलसंधि तोड़ने को लेकर आंदोलन नहीं कर सकते. पर सरकार का क्या धर्म है. राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के बाद नेपाल ने कैसे छोड़ दिया दो लाख क्यूसेक से ज्यादा पानी जिससे स्थिति और बिगड़ रही है. कोई आपत्ति नहीं,..कोई विरोध नहीं. क्या कर रही है केंद्र सरकार.

सेंसेक्स के आंकड़ों से विकास का खाका खींचने वालों के लिए बिहार की बाढ़ बेमतलब की चीज़ है. चूड़ा-गुड़,...दिया- सलाई,..ज्यादा से ज्यादा कुछ हफ्ते टपकाओ और चैन की नींद लो. राहत का मतलब यही है.
नीति-निर्माताओं के लिए कोसी-कमला-गंडक अंजानी सी चीज़ हैं और बिहार जैसे राज्य बौद्धिक भारत के लिए डंपिंग यार्ड.

सोच ऐसी कि यहां था ही क्या जो बर्बाद हो गया. किस उद्योगपति का कौन सा उद्योग बह गया. किसकी पूंजी लुट गई. वो तो आबादी ने वोट की ताक़त दे दी है वरना,...अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आने की ज़रूरत भी न पड़ती. क्योंकि भूमंडलीकरण के इस दौर में बिहार के लोग सेंसेक्स की भाषा नहीं समझते. क्योंकि बिहार तो देश के विकास के ग्राफ की रफ्तार रोकता है. इसके रहने न रहने से किसको फर्क पड़ता है.

अभी बाढ़ की ख़बर सामने है,....बर्बादी की पूरी ख़बर आने में देर है. सरकार चूड़ा-गुड़ पहुंचा रही है..वो इससे ज्यादा कुछ और नहीं कर पाएगी,..तय मानिए...लोग खड़े होंगे तो अपने भरोसे. अपनी तमाम मुश्किलों से लड़ेंगे तो अपने भरोसे. आंखों के आंसू भी ख़ुद पोछेंगे और पसीना भी.

रविवार, 31 अगस्त 2008

आतंकियों का समर्थन करने वालों का क्या होगा ?

सिमी आतंकवादी संगठन नहीं है. ये कहना है देश के दो केंद्रीय मंत्रियों का,..एक हैं रेलमंत्री लालू प्रसाद और दूसरे हैं इस्पात और उर्वरक मंत्री रामविलास पासवान. लालू राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और रामविलास लोजपा के सुप्रीमो. इनसे अलग एक और नेता हैं,...मुलायम सिंह यादव,..सिमी से इनका प्रेम जगज़ाहिर है. आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की पुष्टि के बाद भी ये नेता खुलकर सिमी के पक्ष में बयान दे रहे हैं. केंद्र की एजेंसियों के पास इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि सिमी की गतिविधियां राष्ट्रविरोधी रही हैं. सुप्रीम कोर्ट तक ने उस पर प्रतिबंध जारी रखने का निर्देश दिया है. बावजूद इसके ये नेता अपने ही सुर में बोल रहे हैं.

प्रतिबंधित संगठन की तरफदारी को लेकर पूछे गए सवाल का उनके पास सीधा जवाब नहीं. बदले में कहते हैं कि सबसे पहले आरएसएस और संघ परिवार के दूसरे संगठनों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. ये जवाब नहीं शर्त है. ताज्जुब की बात है कि ये बातें वे कैबिनेट की बैठक में क्यों नहीं करते. और अगर करते हैं तो उनका प्रस्ताव स्वीकार क्यों नहीं किया जाता. अगर नहीं किया जाता है तो इसके पीछे की वजह क्या है. क्या केंद्र के पास संघ परिवार के संगठनों को प्रतिबंधित करने को लेकर पर्याप्त आधार है,..इस सवाल का जवाब ये नेता नहीं देते.

तुष्टिकरण के आरोप नए नहीं हैं,...पर वाकई ये क्या है. इसे कोई नहीं जान पाया है. अगर ये माना जाए कि अल्पसंख्यकों को ख़ुश करने के लिए ये नेता सिमी के समर्थन में बयान दे रहे हैं. तो फिर मसला बड़ा है.

संघ परिवार के संगठन देशविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं या नहीं इसको लेकर पक्के तौर पर सरकार भी कुछ नहीं कह पा रही. पर सरकारी फाइलों में आतंकवादी संगठन के रूप में दर्ज सिमी का समर्थन करने का मामला साफ है,...तो क्या इन केंद्रीय मंत्रियों पर नकेल कसी जाएगी.

शनिवार, 30 अगस्त 2008

एक लाइन और जोड़ लीजिए...

राजस्थान की राजधानी जयपुर से चालीस किलोमीटर दूर कालाडेरा गांव में इन दिनों हलचल है. हर विचारधारा के लोग यहां एकजुट दिख रहे हैं. आंदोलन है कोका-कोला के ख़िलाफ. ठंडा मतलब कोका-कोला,..यहां अब लोगों की समझ में नहीं आ रहा बल्कि लोग कह रहे हैं,...बर्बादी मतलब कोका-कोला.

वे इसके स्वाद पर उंगलियां नहीं उठा रहे,..न ही इसमें कीटनाशकों की मौजूदगी उनके लिए मुद्दा है. उनके मन में आशंकाएं तभी से थीं जब कंपनी 1999 में यहां आई थी. पर कोक ने तब उन्हें मना लिया था. खेती और पशुपालन कर रोज़ी कमाने वाले स्थानीय लोगों से रोज़गार का वायदा किया गया था. उन्हें कई विकास के सपने दिखाए गए थे.

पर अब ग्रामीण कोका-कोला के ख़िलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं. उनका कहना है कि इस प्लांट के बिना बंद हुए हम चैन से नहीं बैठेंगे. दरअसल इस प्लांट की वजह से उनकी रोज़ी पर संकट है. लोगों का कहना है कि पिछले नौ सालों में यहां का भूजल-स्तर इतनी तेज़ी से नीचे गया है कि खेती संभव नहीं. घाटे की वजह से यहां का लगभग हर किसान कर्ज़दार हो चुका है. ज़मीन से पानी खींचना ख़ासा महंगा है. कभी बीस से तीस फीट पर मिलने वाला पानी बरसात के इस मौसम में अब सवा सौ फीट से भी नीचे जा चुका है.

कहते-कहते वे थक गए पर कंपनी ने न तो उन्हें मुआवज़ा दिया न ही सरकार की तरफ से उन्हें मदद का भरोसा मिला. हद तो यह है कि सत्ताधारी भाजपा के नेता उल्टे किसानों से ही बीच का रास्ता निकालने की बात कह रहे हैं. बाक़ी की बात छोड़िए. ये स्वदेशी की बात करनेवाली पार्टी की स्थिति है. राजनीति गरम है,..पर उसमें गंभीरता नहीं. लेकिन किसानों को ख़ुद पर विश्वास है. वे सड़कों पर उतर रहे हैं,...गांधीवादी से लेकर वामपंथी और दक्षिणपंथी तक.

कोका-कोला बेवरेजेज इंडिया लिमिटेड के स्वामित्व में ये प्लांट यहां लगा है,... कंपनी ने स्थिति के आकलन का ज़िम्मा ' टेरी' नाम की संस्था को सौंपा,...इसकी रिपोर्ट आ चुकी है. हैरत की बात है कि इसमें किसानों के आरोपों को सच बताया गया है. रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि इलाक़े में भूजल-स्तर साल-दर-साल किस तरह नीचे गया है. इसके बाद कहने को कुछ नहीं बचा है. पर सरकार और कोका-कोला दोनों का रूख़ इस मामले पर एक है. दोनों ही चुप हैं.

एक कुख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत के सुदूर गांव में पहुंचकर किसानों की रोज़ी को छीन रही है,...और सरकार चुप है. हद है. कोका-कोला मोटा लाभ कमाने के लिए जानी जाती है,...लोगों को शीतल पेय के नाम पर ज़हर पिलाने के लिए जानी जाती है. पर सरकार का साथ उसे ही मिल रहा है. इस लड़ाई में किसान अकेले हैं.

ये अपना देश है. नाम है हिंदुस्तान. यहां सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोग खेती पर आश्रित हैं. इस देश की आत्मा गांवों में बसती है. बचपन से हम सब ये सुनते आए हैं. और आज भी सुन रहे हैं,...एक लाइन और जोड़ लीजिए. भारत एक बहरा देश है,..उसे अपनी आत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती.

ख़बर अभी अधूरी है

कोसी के आए उफान ने उत्तर बिहार का नक्शा बदल दिया है. बाढ़ का पानी उतरने दीजिए. तब पूरी हक़ीक़त सामने आएगी. हालात यहां तक कैसे पहुंचे. ये सब जानते हैं. पर तबाही कितनी हुई है...इसके बारे मुकम्मल तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.

नदी के किनारों पर आबादी बसती है. पर जब आबादी के बीच नदी आ जाए,..तो क्या होगा. बिहार में यही हुआ है. गांवों का दर्द कोई नहीं जानता. आसमानी तस्वीरें सबके पास नहीं है.


राज्य सरकार के अनुरोध को सुनने में केंद्र ने बिल्कुल देरी नहीं की. ऐसा पहले शायद ही हुआ हो...राज्य और केंद्र में सरकारें एक रहीं तो ऐसा हुआ है,..पर ज्यों की त्यों मांगें मानने के उदाहरण न के बराबर हैं.. साफ है कि बिहार में बहुत कुछ हो गया है... इतना कि अभी सच कह देने में सरकार को संकोच है. नीतीश और लालू के बीच लाख मतभेद हों,...पर दोनों इसे प्रलय की संज्ञा दे रहे हैं. प्रधानमंत्री ने तनिक भी देरी नहीं की. मुख्यमंत्री ने जो मांगा,.. केंद्र ने उसे हू-ब-हू स्वीकार कर लिया.

हम जो कहने की कोशिश कर रहे हैं,..उसे महज़ कयास न समझें....सबसे क़रीबी सच यही लग रहा है कि राज्य में भयंकर त्रासदी हुई है. और ये सबसे ज़्यादा गांवों में हुई है.


ये आपदा इतनी ही नहीं है जो दिख रही है,..या जो टीवी चैनलों पर दिखाई जा रही है. अख़बारों में अपीलिंग छायाचित्र प्रकाशित होते हैं. टीवी चैनलों पर इससे ज्यादा पहलू दिखता है,..पर दिखेगा वहीं का,...जहां पत्रकार पहुंचेंगे. उनके लिए नाव से जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं. मोटरबोट पर सवार होकर कितने लोग जा पाएंगे और कितने अंदरूनी इलाक़े में जा पाएंगे. सच यही है कि प्रभावित इलाक़ों के अधिकांश हिस्से में अभी राहतकर्मियों और ख़बरनवीसों को जाना है. वे जा नहीं पाए हैं.

शहरों में छतें लगभग सभी घरों में होती हैं. गांवों में ये गिनती के होते हैं. तो फिर अचानक आई बाढ़ के बाद लोग कहां गए होंगे. गांवों में नावें कहां थीं कि लोग सुरक्षित स्थानों पर समय रहते निकल जाते. अगर पानी अचानक बढ़ा होगा तो क्या हुआ होगा.

बिहार सरकार ने हर गांव में एक ऊंचे चबूतरे के निर्माण की बात कह रखी थी,..पर योजना को अभी पूरी तरह से अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका था. ऐसे में फौरी राहत के लिए लोगों के पास विकल्प सीमित थे. वे पेड़ों पर चढ़े होंगे,..एक घर की छत पर दर्जनों होंगे,...कौन जाने,..सैंकड़ों होंगे. पर कब तक इंतज़ार कर पाएंगे ये लोग. इनकी पीड़ा,..इनकी मुश्किलें मीडिया में कहां दिख रही हैं...पर ख़बर तो वहीं है. ऐसे में फिलहाल ख़बर अधूरी है.

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

शिबू क्या चाहते हैं ?

झारखंड की राजनीति शिबू सोरेन के बिना अधूरी है. वे प्रदेश के सबसे दिग्गज राजनेता हैं. कितने ही आरोप उन पर लगे...पर उनकी सौम्यता और आम लोगों से उनका सरोकार...सबको उनकी ओर खींचता है. आदिवासी समाज में उनका कद पहले जैसा नहीं...पर शिबू आम राजनेता नहीं बल्कि ख़ास हैं.

उनकी छवि के साथ जो सबसे बड़ा संकट जुड़ा है वो है विश्वसनीयता का. उन पर परिवारवाद का आरोप लगता है,..और ये सही भी है. उन्होंने दोनों बेटों को अपने राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया है। खुद कभी इसे स्वीकार नहीं किया पर ये जगज़ाहिर है. इसको लेकर पार्टी टूटी...पर शिबू पर असर नहीं हुआ. रिश्वतखोरी से लेकर हत्या तक के आरोप उन पर हैं. पर वे आज भी अपने दम पर झारखंड में सबसे ज्यादा भीड़ जुटाते हैं. कार्यकर्ताओं पर भड़क उठते हैं,..करारी डांट लगाते हैं...फिर भी लोग उन्हें चाहते हैं. पर सवाल ये है कि आखिर शिबू क्या चाहते हैं।

सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. मधुकोड़ा की सहमति के बाद उन्हें ये दिन नसीब हुआ. एक निर्दलीय मुख्यमंत्री के रूप में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहकर कोड़ा ने विश्व रिकॉर्ड बनाया तो ये शिबू का आशीर्वाद ही था. ये हम नहीं कह रहे ख़ुद कोड़ा कहा करते थे. वे कहते थे जब भी शिबू आदेश करेंगे,...कुर्सी ख़ाली करते उन्हें देर नहीं लगेगी. पर जब वक्त आया तो वे अपनी बातों से पीछे हट गए। पर शिबू उन्हें मनाने के जतन में लग गए। कोड़ा को ये पता था कि इतनी आसानी से किनारे लगना उनके लिए घाटे का सौदा होगा,...नई सरकार में उनकी भूमिका क्या होगी,...ये पहले तय कर लेना था. दोनों चाहते थे कि कुछ न कुछ समझौता हो. राजनीतिक सौदेबाज़ी का जो खेल झारखंड में चल रहा है उसकी ये पराकाष्ठा नहीं थी,... एक उदाहरण भर था. ना..ना..करते मधु कोड़ा और शिबू साथ बैठे और लालू ने उनके बीच सुलह कराई....या कह सकते हैं....समझौते की शर्तें तय की. ये शर्तें क्या होंगी...इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

आश्चर्य की बात है कि शिबू ने सब कुछ स्वीकार लिया. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। पर यही वो बात है जिसकी वजह से झारखंड की राजनीति को ये दिन देखना पड़ रहा है।

शिबू को मुख्यमंत्री बनने की बेताबी आज से नहीं है तब से है जब बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. लालू उनकी बेताबी को जानते थे...सो इसे जमकर भुनाया. कभी झारखंड स्वायत्त परिषद का गठन कर शिबू को उसका मुखिया बनाया,...तो कभी केंद्रीय मंत्री बनवाने में मदद की. पर सत्ता सुख भोगने में भाग्य ने झामुमो सुप्रीमो का साथ नहीं दिया. एक बार मुख्यमंत्री बने भी तो गद्दी छोड़नी पड़ी. अब नई पारी में वे कब तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे कोई नहीं जानता...ख़ुद शिबू नहीं. पर साध पूरी करनी थी. और ये पूरी हुई. पर क्या उनके मुख्यमंत्री बनने से आम लोगों की साध पूरी हो पाएगी।

ये सोचकर देखिए कि अगर शिबू पद से दूर रहते और आदिवासी समाज के विकास के लिए अपने शुरूआती दिनों की तरह काम करते तो कहां होते...न केवल वो...बल्कि उनका नया बना प्रदेश भी.

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

ऐसे ही लटकाओ आतंकियों को...

आतंकियों ने जम्मू में बुधवार की सुबह से ही ख़ून की होली खेलनी शुरू कर रखी थी...घूम-घूम कर शहर भर में गोलियां बरसाईं. जो सामने आया,..उसे भून कर रख दिया। इसके बाद एक घर में महिलाओं और बच्चों को बंधक बनाकर ख़ुद के लिए सुरक्षित रास्ता तलाशने लगे. वे जानते थे कि भारत जैसे देश में इसकी पूरी संभावना है. पर ऐसा नहीं हुआ. सेना ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। बुजदिलों को मौत की आहट साफ सुनाई दे रही थी। इसलिए उन्होंने अपने पास मौजूद गोला बारूद का भरपूर इस्तेमाल किया। पर कब तक...जान लेने या देने की तैयारी करके आए जवानों को साफ संदेश मिला था, ..संदेश था सफाए का. बहुत हो चुका...संदेश था मौक़े पर ही आर या पार कर देने का. आख़िरकार आतंकियों को ढेर करने का सिलसिला शुरू हुआ. एक दुस्साहसी आतंकी ने जैसे ही मकान से बाहर निकलकर गोलियां दागनी शुरू की. मकान की छत पर निशाना साधे बैठे जवान ने उसे अपनी गोलियों का निशाना बना लिया। इसके बाद उसकी लाश को जवानों ने छत पर खींच लिया। टीवी चैनलों पर ये दृश्य दिखाए जा रहे थे। बहुत दिनों के बाद ऐसी तस्वीर दिखी थी। बांग्लादेश राइफल्स(बीडीआर) ने एक बार बीएसएफ के जवानों की लाशें बांस में बांधकर जानवरों की तरह लटकाकर भारत भेजी थीं...तब देश का ख़ून खौल उठा था. पर नेता चुप्पी साधे रहे. देश समझने लगा कि ये भारत की नीति है. हमारी पुश्तैनी नीति है. पर इन दृश्यों ने कुछ तो जताया है. संकेत समझे जा सकते हैं कि अब सहने की सीमा पार हो गई है. और अब हर दुस्साहस का ऐसा ही जवाब दिया जाएगा.

बुधवार, 27 अगस्त 2008

बाढ़ के बाद की पहचान

बिहार कमाऊ पूत नहीं है,..इसलिए देश का उपेक्षित बेटा है....यहां केवल आबादी है,..लफ्फाजी है,...पूंजी नहीं है,...इसलिए इसकी कोई कद्र नहीं....मीडिया में बिहारियों का बर्चस्व है,...पर उन पत्रकारों का पेट दूसरे प्रदेशों की कमाई से भरता है,...इसलिए कुछ पल शोक मनाने के सिवाय बाक़ी समय वे यथास्थितिवादी हो जाते हैं. बताते हैं बिहार फिर बाढ़ का क़हर झेल रहा है...बात यहीं ख़त्म. अगर बिहार हर साल बाढ़ की तबाही झेलने को अभिशप्त है,..तो क्या इसे उसकी नियति मान लिया जाय. क्या कोई रास्ता नहीं,...हालात को बदतर होने देने से बचाने का. क्या कुछ नहीं हो सकता....करोड़ों की आबादी की हर साल होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए.

बिहार से पलायन करने वाले मज़दूरों के भार से देश के महानगर दबे जा रहे हैं. झुग्गियों में भी जगह नहीं,..उन्हें स्वीकारने की. पर कोई ये तस्दीक करना नहीं चाहता कि ये मज़दूर कौन हैं. ये गांव में रहकर खेती-किसानी कर कमाने वाले ज्यादातर उत्तर बिहार के वे लोग हैं. जिनकी बची-खुची कमाई को हर साल बाढ़ लील लेती है....खेतों में बालू छोड़ रोज़ी रोटी का रास्ता बंद कर देती है. टूटी सड़कों से मीलों चलकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ करना उनके लिए दु:स्वप्न साबित होता है. गांव में महाजन तक नहीं जो कर्ज़ दे,...क्योंकि वसूली की कोई गारंटी नहीं. ऐसे में कुछ भी करने को अभिशप्त होते हैं ये बाढ़-पीड़ित. इनमें सीमांत किसानों से लेकर,...मज़दूर तक सभी होते हैं. कोई और चारा नहीं. घर परिवार को छोड़कर ये चले जाते हैं,..बहुत दूर,..गालियां खाने,...गोलियां खाने. जिल्लत की ज़िंदगी जीने,....हर जाती ट्रेन की जनरल बॉगी सितम्बर से भरी नज़र आती हैं.

इतनी बड़ी तबाही. राहत के कोई इंतज़ाम नहीं. अपने दम पर खड़े होने की चुनौती. सब कुछ सह जाते हैं जीवट के ये धनी लोग. पर आपने कभी नहीं सुना होगा कि बिहार में किसी किसान ने आत्महत्या की. सब कुछ सहेंगे पर प्रदेश पर ये कलंक नहीं. असम, मणिपुर में उल्फा, बोडो और कुकी उग्रवादियों के शिकार बनते हैं,...कश्मीर घाटी से सब कुछ छीनकर भगा दिए जाते हैं,...कभी पंजाब में लाइन में खड़े कर भून दिए जाते थे,....तो अब महाराष्ट्र से लतियाकर भगा दिए जाते हैं,....ये सब यही तो हैं.

थक हार कर बैठना मंज़ूर नहीं. इसलिए कहीं भी चले जाते हैं. कुछ भी कर लेते हैं. मिल जुल कर रह लेते हैं. नोयडा के किसी मोड़ पर प्लास्टिक तानकर पेड़ के नीचे किए गए छांव में मकुनी खाते ये लोग,...मिल बैठकर रोटी बनाते ये लोग,....भरी दुपहरी में जालीदार बनियान पहने,...पसीने से तर रिक्शा चलाते ये लोग,...बरसात में पॉलीथिन की टोपी बनाकर सड़क किनारे ख़ुद को बचाते ये लोग. कभी पहचानने की कोशिश करिए,..पता मिलेगा बिहार,...बिहार में उत्तर बिहार...सहरसा, मधेपुरा,...सुपौल, कटिहार, पूर्णिया,..यही है बाढ़ पीड़ितों की बर्बादी के बाद की पहचान.
आज चर्चा शुरू हुई है,..जब कोसी ने धारा बदल दी. जब सब कुछ उजड़ गया...राष्ट्रपति ने भी मुख्यमंत्री को फोन किया...संवेदना जताई....पर सच्चाई ये है कि इनकी याद फिर कभी नहीं आएगी. आज सब संवेदना जता रहे हैं,....पर दिल्ली की सड़कों पर कुछ महीने बाद रिक्शा चलाते इन चेहरों को कोई नहीं पहचान पाएगा.