शनिवार, 17 जनवरी 2009

मैं तो टल्ली हो गया!

34वें राष्ट्रीय खेलों के आयोजन को चौथी बार टाल दिया गया है. झारखंड को जब राष्ट्रीय खेलों की मेज़बानी मिली थी तो राज्य सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि बताया था...लेकिन इस उपलब्धि का ‘बोझ‘ ढोने में वो नाकाम रही. राज्य में राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिहाज से आधारभूत संरचना का अभाव था. इसको लेकर लंबी-चौड़ी योजनाएं बनीं. स्टेडियम से लेकर खेलगांव के निर्माण के लिए देश भर से टेंडर मंगवाए गए. लेकिन कागज़ की बजाय ज़मीन पर काम तेज़ी से नहीं हुआ. राज्य की राजनीतिक अस्थिरता भी इसके पीछे एक प्रमुख वजह रही.



इन खेलों का आयोजन सबसे पहले नवंबर 2007 में टला,...दूसरी बार पर्याप्त तैयारी नहीं होने की वजह से इसे मार्च 2008में टाला गया...लेकिन इस बार भी तैयारियों के लिहाज से तय तारीख़ पर आयोजन संभव नहीं हुआ.तीसरी बार आयोजन की दिसंबर में तय तारीख़ भी टालनी पड़ी. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अधिकारियों ने तय वक़्त पर खेलों का आयोजन नहीं होने पर जुर्माने की चेतावनी दी थी. लेकिन इसका कुछ असर नहीं हुआ. यही वजह है कि 15 से 26 फरवरी के बीच खेलों के आयोजन की तय तारीख़ को एक बार फिर टाल दिया गया है...अब इस बात की संभावना है कि खेल जून में होंगे...लेकिन पक्के तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है.

इस बीच ज़रा उन खिलाड़ियों के बारे में सोचिए जिन्होंने एक-एक दिन के हिसाब से अपनी तैयारियों में लगे हैं. उनके उत्साह पर कितना असर हो रहा होगा...या..यूं कहें इन खेलों में भागीदारी को लेकर उनमें उत्साह बाक़ी ही नहीं होगा. 33वें राष्ट्रीय खेल आतंकवाद के साए में हुए थे...इसकी तारीख़ भी टालनी पड़ी थी...आख़िरकार गुवाहाटी में ये सम्पन्न हो गए. लेकिन गुवाहाटी और रांची के बीच बड़ा फर्क है. उल्फा की धमकियों के बीच गुवाहाटी में राष्ट्रीय खेलों का सफल आयोजन हुआ था...इसे सरकार की मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचायक माना गया...लेकिन रांची में बात ठीक उलट है.

इसे सिवाय लापरवाही के कुछ और नहीं माना जा सकता. रही बात ज़िम्मेदारी की तो वो सब के कंधे जाती है. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन जिस तरह ग़लती पर ग़लती किए जाने के बाद भी झारखंड को माफ करता रहा...उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इस वजह से देश की प्रतिष्ठा को भी कम ठेस नहीं पहुंची है. अगर राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कुछ लापरवाह नेताओं और अधिकारियों के भरोसे छोड़ दी जाए...तो इससे बुरी बात और क्या होगी?. दुर्भाग्य से यही हो रहा है.

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

द्रोणाचार्य का ये हाल!



ओलंपिक के दौरान हर सुबह अख़बारों में छपी पदक-तालिका को लोग बड़ी उत्सुकता से देखते हैं. लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती है. तब और भी कोफ्त होती है जब युगांडा और इथोपिया जैसे देश हमसे काफी आगे नज़र आते हैं. इसके पीछे की वजह को दुहराने की ज़रूरत नहीं. लेकिन ताज़ा कहानी सुनकर आप चौंक जाएंगे....अख़बारों में ये पढ़कर हैरत हुई कि तीरंदाज़ी के राष्ट्रीय कोच लिम्बा राम के पास सर ढंकने तक की जगह नहीं है. जयपुर में रहने वाले लिम्बा का ठिकाना फिलहाल एक विधायक के सरकारी निवास का गैरेज है.

उदयपुर ज़िले के एक गांव में जन्मे लिंबा अहरी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं...जंगली इलाक़ों से शुरूआत कर तीरंदाज़ी के ज़रिए उन्होंने ओलंपिक का सफर तय किया. तीरंदाज़ी में देश का नाम रोशन करने पर उन्हें १९९१ में अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया. लेकिन कहानी ये नहीं है,...दरअसल लिम्बा राम ने अब तक शादी नहीं की है,....इसके पीछे की वजह बिल्कुल अलग है. उन्हें नहीं लगता था कि आर्थिक रूप से वे परिवार का बोझ उठाने में सक्षम हैं. आज भी उन्हें यही लगता है...

तब जबकि वे तीरंदाज़ी के राष्ट्रीय कोच हैं. उनकी तनख्वाह बस इतनी है कि किसी तरह अपना ग़ुज़ारा हो जाय. १९९२ के बार्सिलोना ओलंपिक में वे कांस्य पदक से मामूली अंतर से चूक गए थे. उनके नाम विश्व रिकॉर्ड भी रहा है. ओलंपिक में तीन बार देश का प्रतिनिधित्व करने वाले इस द्रोणाचार्य का हाल सुनकर आपकी आंखें गीली हुए बिना नहीं रहेंगी. खेल के मैदान में हासिल उनकी उपलब्धियों से देश का सम्मान तो बढ़ा लेकिन लिम्बा राम की हैसियत नहीं बदली...उन्हें कभी घास काटने की नौकरी दी गई तो कभी चपरासी का काम करने को कहा गया.

बावजूद इसके उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है. लिम्बा राम कहते हैं कि भारतीय होने को लेकर वे गर्व महसूस करते हैं और एक आम नागरिक के रूप में ज़िंदगी ग़ुज़ारने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या क्रिकेट के बारे में भी ऐसी कल्पना की जा सकती है,...

क्या आप सोच भी सकते हैं कि राष्ट्रीय टीम के कोच की ये हालत होगी....अगर होगी..तो क्या होगा? क्या बस इतने भर से इस ख़बर को भूल जाना चाहिए कि लिम्बा अपनी हालत से संतुष्ट हैं....उन्हें किसी से गिला-शिकवा नहीं.

एक रोचक तथ्य ये है कि राष्ट्रीय तीरंदाज़ी संगठन के अध्यक्ष लोकसभा में विपक्ष के धाकड़ नेता विजय कुमार मल्होत्रा हैं....उनका कहना है कि लिम्बा ने कभी इस बारे में शिकायत नहीं की. यानी नेताओं के लिए खेल,....बस राजनीति चमकाने का एक ज़रिया भर हैं....अगर ये बात सच नहीं होती तो क्या लिम्बा के मुंह खोलने का इंतज़ार किया जाता? लिम्बा ने अब भी मुंह नहीं खोला है,...उन्होंने बस पत्रकारों के सवालों का जवाब दिया है.

९ जनवरी को उन्हें राष्ट्रीय कोच नियुक्त किया गया है...उनसे पहले ये ज़िम्मेदारी दक्षिण कोरिया से आयातित कोच के कंधों पर थी...लेकिन सरकार को उम्मीद है कि अगले साल दिल्ली में होनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए वो खिलाड़ियों को इस तरह प्रशिक्षित करेंगे कि पदकों की झड़ी लग जाए.

लिम्बा कुछ नहीं बोल रहे...उनसे जो कुछ हो सकता है वो करने में लगे हैं. जैसा कि अब तक वे करते आए हैं...लेकि क्या आप और हम हक़ीक़त को जानने के बाद अगले साल पदक-तालिका में भारत का नाम ढूंढ़ने को इतने उत्सुक होंगे?