कभी-कभी ज़िंदगी से मौत बेहतर लगने लगती है. ये वो स्थिति है जब कुछ नहीं सूझता. कोई रास्ता नज़र नहीं आता. सब कुछ बर्बाद होते देखने के बाद जीने की इच्छा ख़त्म होने लगती है. उड़ीसा में साइक्लोन के बाद ज़िंदा बचे लोगों की कहानियां ऐसी ही थीं. तमिलनाडु में सूनामी के बाद सब कुछ गंवा चुके लोग मौत मांगते नज़र आए. ये त्रासदी के बाद का समां होता है. गुजरात में भूकंप के बाद प्रभावित लोगों की हालत ऐसी ही थी,... और अब बिहार.... कोसी के जलप्रलय के बाद की स्थिति ऐसी ही है.
पर तस्वीर कुछ अलग है. क्योंकि सौ करोड़ से अधिक लोगों का देश बाढ़ में फंसे अपने पचास लाख लोगों को बचाने के लिए चार हैलीकॉप्टर का जुगाड़ कर पाया है. क्योंकि बाढ़ में फंसे इन लोगों की मदद के लिए बमुश्किल दस लोगों को बिठाने वाले सौ मोटर बोट का इंतज़ाम कर पाया है हमारा देश.
राहत के इंतज़ाम के लिए राज्य सरकार ने मुस्तैदी न दिखाई होती. तो भगवान मालिक था. विश्वास करना मुश्किल है कि ये घोषित राष्ट्रीय आपदा है. मांगने पर ही सब मिले तो काहे की राष्ट्रीय आपदा. ये न तो साइक्लोन है और न सूनामी और न ही भूकंप. कुछ घंटों की जानलेवा आपदा नहीं है ये सैलाब. और न ही इसका असर तुरत-फुरत दिखेगा. प्रभावित इलाक़ों में लोग पीढ़ियों पीछे हो गए हैं.
उत्तर बिहार में बाढ़ इसलिए नहीं आती कि यहां बारिश ज्यादा होती है....इसलिए भी आती है क्योंकि यहां किसान रहते हैं. क्योंकि इनके पास आर्थिक ताक़त नहीं. इसलिए क्योंकि नेपाल के साथ यहां के लोगों का रोटी-बेटी का संबंध है. इसलिए क्योंकि यहां के लोग सामाजिक तौर पर सबसे ज्यादा जागरूक हैं. वे अकेले अपने हित के लिए नेपाल के साथ जलसंधि तोड़ने को लेकर आंदोलन नहीं कर सकते. पर सरकार का क्या धर्म है. राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के बाद नेपाल ने कैसे छोड़ दिया दो लाख क्यूसेक से ज्यादा पानी जिससे स्थिति और बिगड़ रही है. कोई आपत्ति नहीं,..कोई विरोध नहीं. क्या कर रही है केंद्र सरकार.
सेंसेक्स के आंकड़ों से विकास का खाका खींचने वालों के लिए बिहार की बाढ़ बेमतलब की चीज़ है. चूड़ा-गुड़,...दिया- सलाई,..ज्यादा से ज्यादा कुछ हफ्ते टपकाओ और चैन की नींद लो. राहत का मतलब यही है.
नीति-निर्माताओं के लिए कोसी-कमला-गंडक अंजानी सी चीज़ हैं और बिहार जैसे राज्य बौद्धिक भारत के लिए डंपिंग यार्ड.
सोच ऐसी कि यहां था ही क्या जो बर्बाद हो गया. किस उद्योगपति का कौन सा उद्योग बह गया. किसकी पूंजी लुट गई. वो तो आबादी ने वोट की ताक़त दे दी है वरना,...अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आने की ज़रूरत भी न पड़ती. क्योंकि भूमंडलीकरण के इस दौर में बिहार के लोग सेंसेक्स की भाषा नहीं समझते. क्योंकि बिहार तो देश के विकास के ग्राफ की रफ्तार रोकता है. इसके रहने न रहने से किसको फर्क पड़ता है.
अभी बाढ़ की ख़बर सामने है,....बर्बादी की पूरी ख़बर आने में देर है. सरकार चूड़ा-गुड़ पहुंचा रही है..वो इससे ज्यादा कुछ और नहीं कर पाएगी,..तय मानिए...लोग खड़े होंगे तो अपने भरोसे. अपनी तमाम मुश्किलों से लड़ेंगे तो अपने भरोसे. आंखों के आंसू भी ख़ुद पोछेंगे और पसीना भी.
सोमवार, 1 सितंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
अमित जी, मुझे लगता है कि विपदा झेलना बिहार के लोगों की नियति ही बन गयी है। अक्सर उनपर मुसिबतों का पहाड़ टूटता है, कभी भूकंप तो कभी तो कभी अकाल, तो कभी नक्सलियों और डकैतों का कहर...। बाढ़ तो हर साल आती है और उन्हें रूलाती है। बिहार के लोगों की मुसिबतें यहीं खत्म नहीं होती। आपने टीवी पर देखा होगा कैसे मुंबई में राज ठाकरे के गुंड़ों ने बिहारियों पर कहर बरपाया। उससे पहले असम से बिहारियों को खदेड़ा गया। अब आप ही बताइए कहां जाएं बिहारी? हालांकि हर मुश्किलों से बाहर निकलने का दमखम बिहारियों के पास हैं। बाढ़ की विपदा से भी वो जल्दी उबर जाएंगे। लेकिन इस कृत्रिम आफत के लिए दोषियों की पहचान जरूरी है। अब सबकुछ साफ हो चुका है कि इस बाढ़ का कारण क्या है। इस महाप्रलय के लिए जिम्मेदार कौन है? लाखों लोगों की जिंदगी को दांव पर लगा देने वालों को सजा जरूर मिलनी चाहिए, ताकि भविष्य में उससे सबक ली जा सके। बहरहाल, आपने अपने आलेखों में बाढ़ की बहुत ही मार्मिक तस्वीर खिंची है। लेख अच्छे हैं...बाढ़ की विभिषिका को ब्लॉग के माध्यम से लोगों को रू-ब-रू कराने के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।-अजय शेखर प्रकाश,वॉयस ऑफ इंडिया
किस चीज की राष्ट्रीय आपदा, कैसी राष्ट्रीय आपदा है. पूछिए प्रधानमंत्री से. आंध्रप्रदेश में थोड़ी बाढ़ आई प्रधानमंत्री ने ढ़ाई हजार करोड़ का पैकेज दे मारा. यहां पूरा का पूरा कोसी क्षेत्र बह गया, आकर कह गए कि यह राष्ट्रीय आपदा है और एक हजार करोड़ रुपये इसलिए दे रहे हैं कि लालू ने कहा है. हमें जीना है हम जी लेंगे पर कंधमाल को राष्ट्रीय शर्म कहने वाले प्रधानमंत्रीजी आपको जनता की हाय जरूर लगेगी.
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