
महाभारत की कहानी सबको याद होगी. युद्धिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता था. इसलिए क्योंकि वो सत्यवादी थे, न्यायप्रिय थे,...उनके चारों अनुज एक से बढ़कर एक थे. कोई महाबलशाली तो कोई धनुर्धर. बावजूद इसके इन पांचों की पत्नियां भरे दरबार में नंगी की जाती रही और वे कुछ नहीं कर सके. इसलिए नहीं कि इन पांडु पुत्रों में क्षमता नहीं थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'धर्मराज' युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाने का फ़ैसला ख़ुद किया था....और वो ठहरे नीतिवान..इसलिए बाज़ी हारने के बाद दु:शासन का विरोध न करने को वो ज़्यादा नीतिसंगत मानते थे. बाक़ी के चारों अनुजों का ख़ून खौल रहा था...लेकिन उन्हें बड़े भाई के हर आदेश का पालन करना द्रौपदी की इज़्ज़त बचाने से ज़्यादा सही लगा. आगे क्या हुआ...सभी जानते हैं...अवतारी कृष्ण न होते तो हस्तिनापुर के दरबार के उस हाल-ए-बयां को लिखने में महर्षि वेदब्यास की उंगलियां भी कांप जातीं...और ये भारत के सभी महाकाव्यों का सबसे शर्मनाक अध्याय होता. धर्म की दृष्टि से...पौरुष की दृष्टि से और न्याय की दृष्टि से भी.
बाद में महाभारत की लड़ाई हुई..और..इसमें जीत हासिल करने के लिए 'धर्मराज' ने झूठ का भी सहारा लिया...तो क्या धर्मराज के विचार परिवर्तित हो गए थे...या उनके 'नीतिसंगत' दृष्टिकोण के मुताबिक़ विशेष अवसरों पर झूठ बोलना सही था. मुझे आज भी ये बात मथती है कि युद्धिष्ठिर ने अपमान की पराकाष्ठा के वक़्त नीति-अनीति पर किस तरह से विचार किया...और किया तो उन्हें धृतराष्ट्र पुत्रों का विरोध सही क्यों नहीं लगा.
महाभारत धारावाहिक में मैंने ये सब देखा था...तब स्कूल में पढ़ता था...चौथी या पांचवीं में था. आज लगभग सत्रह-अठारह साल बाद ये बातें याद आ रही हैं...ये मन को बुरी तरह मथ रही हैं. पत्रकारिता में चार साल से हूं पर पिछले कुछ महीनों के अनुभव जीवन भर याद रहने वाले हैं. सोचने को ये विवश करेंगे.
दिनकर की कविताओं में कहीं पढ़ा था...'हो चाहे जहां अनय..उसको रोको रे...यदि ग़लती करें..शशि-सूर्य उन्हें टोको रे'. इन शब्द-युग्मों का मतलब मुझे पत्रकारिता समझ में आया था. पत्रकारिता से रोटी कमाने का फ़ैसला मेरा अपना था. मुझे लगता था अपने स्वाभाविक गुणों का इस्तेमाल मैं इसके सिवाय कहीं और नहीं कर सकता. लेकिन काम के दौरान हासिल हो रहे अनुभवों से महसूस कर रहा हूं कि पत्रकारिता के लिए जो गुण मुझे स्वाभाविक और बेहद ज़रूरी लगते थे....दरअसल वो इस पेशे में अब अवांछित माने जाने लगे हैं. जैसे हर ग़लत बात का विरोध करना.

महाभारत की पृष्ठभूमि में कहूं तो पत्रकारिता के दरबार में सिद्धांतों का चीर-हरण हो रहा है...और धर्मराज (वरिष्ठ पत्रकार) उसी तरह सर झुकाए बैठे हैं...उनके अनुजों की राह भी पुरानी है. महाबलशाली,...धनुर्धर..कुरूपुत्रों को सबक़ सिखाने की क्षमता रखने वाले अनुजों के कथानक बदले नहीं हैं. वे हर आदेश बजाने को तैयार हैं..सब कुछ सहने को तैयार हैं. धर्मराज युद्धिष्ठिर ने ये सब नीति के पालन के नाम पर किया था और करवाया था...वर्तमान में ये प्रोफेशनलिज़्म के नाम पर किया जा रहा है. उदाहरण गिनाने से क्या होगा. बस पात्र बदल जाएंगे...सब जगहों की कहानी तो यही है. सोच रहा हूं...लोग पत्रकार क्यों बनते हैं...अगर मक़सद रसूख़ हासिल करना होता है तो तलवार की जगह कलम को क्यों चुनते हैं...अगर चुनते हैं तो फिर लड़ते क्यों नहीं..हथियार क्यों डाल देते हैं.
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर सच कहने पर पूरी दुनिया भी ख़िलाफ हो जाय तो मत झुको. तन कर खड़े रहो. सामना करो. पहले उपेक्षा,..फिर अनुसरण,..आगे प्रशंसा..अंत में तुम्हें स्वीकृति मिलेगी. हमारे अग्रज ये राह अपनाने की शुरूआत करें तो स्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी. कलयुग है...द्वापर की तरह कोई कृष्ण तो आने से रहे....इसलिए दांव पर लगाने के बाद भी द्रौपदी की इज़्ज़त हमें ही बचानी होगी. बाद में कुरूक्षेत्र की लड़ाई जीतने के लिए झूठ तो बोलना ही पड़ेगा...इसलिए धर्मराज के आदेश का इंतज़ार नहीं करिए...अर्जुन!,भीम!,नकुल!,सहदेव!...सुन रहे हैं ना..उठिए! अब बहुत देर हो गई है.