स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर कई बातें हो रही हैं. ज्यादातर लोग यही कह रहे हैं कि ये भारत की गरीबी को दिखाने वाली फिल्म है. उनके मुताबिक हिन्दुस्तान के अंधेरे कोने पर ही फिल्मकार का कैमरा केंद्रित रहा है. ये कहना कुछ अजीब सा लगता है कि स्लमडॉग मिलेनियर इस वजह से सफल हुई कि उसमें भारत की गरीबी दिखती है.
इस फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई थी,...एक के बाद एक संयोग का ख़ूबसूरत फिल्मांकन,...और इससे आगे आपस में उलझने की बजाय सुलझते जाते कथा-तंतु। स्लमडॉग के आगे बढ़ने की कहानी में भारत के सभी शेड हैं. मुश्किल बस इतनी है कि भारत को किसी विदेशी फिल्मकार ने बड़े ही क़रीब से समझने की कोशिश की है...ये प्रयास क़ामयाब रहा है. यही वो वजह है कि हमारे कई दोस्तों को ये बातें चुभ रही हैं. मुगालते में जीने की बात तो हम में है...वरना फिल्म में बुरा क्या है. कोई ये तो बताए कि डैनी बॉयल ने हक़ीक़त से उलट क्या बातें फिल्म में दिखलाई हैं. पूरी सच्चाई सैल्युलाइड पर नहीं उतर सकती. लेकिन जितनी उतर सकती है उनमें से कई स्लमडॉग में हू-ब-हू नज़र आई है. भुलावे और छलावे में वक्त गुज़ारने की आदत हमारी है.
बॉलीवुड में कितनी फ़िल्में बन रही हैं जिसमें ग्रामीण भारत,...झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाला भारत,..अपने हाल पर जीने को मजबूर,...जीने के लिए हर समझौता करने को तैयार लाचार भारत की कहानी दिखती है....गिनती की फिल्मों को छोड़कर कहां देख पाए हैं हम..अपना देश...अपनी धरती....धरती-पुत्रों की कहानी...युवाओं का संघर्ष, बेरोज़गारी की व्यथा, भ्रूण हत्या...शेयर बाज़ार की लूट. सपना तो ये सब है,...हमें डर लगता है कि कहीं कोई हमारा चेहरा न देख ले...ये डर क्यों है?,…हम छुपाना चाहते हैं दुनिया से अपनी हक़ीक़त. नहीं जताना चाहते कि हम क्या हैं. दरअसल हम चमक रहे हैं इसलिए अपना देश भी हमें चमकता हुआ नज़र आता है.
हम झुग्गियों में रहने वाले लोगों को अपने देश का बाशिंदा नहीं मानते तभी तो इसे गरीबी दिखाने का कुत्सित प्रयास कह रहे हैं,...वरना क्या ग़लत है कि किसी ने बिना चकाचौंध का बड़ा सा सेट लगाए....एक सपनीली फिल्म,...मटमैली बस्ती में फिल्मा ली. इस फिल्म की सफलता में चुभने वाली बात क्या है. संगीत हमारा था,..विशुद्ध हमारा...पूरी दुनिया ने इसे पसंद किया...डिंग-डिंग-डिंगा पर हम ही नहीं झूमे,..सभी के पांव थिरके. जय हो...का मतलब भले कोई देर से समझे पर भाव समझने में किसी को दुविधा नहीं हुई.
बंधु...ये भारत का आकर्षण है,...भारत की जीवनीशक्ति को सलाम है...झेंपिए मत. भारत क्या है...कैसा है...अब इसे नए सिरे से समझाने की ज़रूरत नहीं है...ज़रूरत है तो हमें ख़ुद को जानने की,...जिसके लिए आज भी हमें विदेशी चश्मा लगाना पड़ता है...ये क्या बात हुई...कि जिस बात को लेकर दुनिया ताली बजा रही है...उसी पर हमें शर्म आ रही है.
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
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3 टिप्पणियां:
यह विदेशी पूंजीवाद का एक 'स्लम रूप' है, जिस पर आप जरूर खुश हो सकते हैं। कौन रोकता है?
तब तो भारत के सुन्दर रुप को भी आस्कर मिलना चाहिये। जैसे लगान।
ब्लागियों के ख़िलाफ़ जाओगे तो मारे जाओगे, पर तुम्हारी बात में निहित सच्चाई साफ़ दिखती है!
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