रविवार, 10 मई 2009

राजनीति में दोस्त कौन ?



25 सालों तक साथ-साथ चले मुलायम सिंह यादव और आज़म ख़ान के रास्ते अब अलग होते नज़र आ रहे हैं. मुलायम समाजवादी पार्टी के मुखिया हैं और आज़म इसके आला नेताओं में एक. इन आला नेताओं में अमर सिंह भी शामिल हैं. अमर और आज़म दोनों पार्टी के महासचिव हैं....लेकिन दोनों की हैसियत में ज़मीन आसमान का अंतर है. इतने दिन तक आज़म अपने गुस्से का इजहार करते रहे लेकिन मुलायम चुप रहे लेकिन ज्योंही अमर ने कोई बड़ा फ़ैसला करने की धमकी दी. तो मुलायम ने आज़म पर बरसने में तनिक भी देर नहीं की.

ये राजनीति की ऐसी धारा है जिसके ख़िलाफ जाने की हिम्मत गिने चुने नेताओं में भी नज़र नहीं आती. अमर सिंह को मुलायम इतने दिनों तक साथ ढोते रहे तो आज़म को कोई आपत्ति नहीं थी कि लेकिन जब अमर आज़म के घर में ही उनके पर कतरते नज़र आए...तो टकराव लाजिमी था. दरअसल आज़म अब तक जयाप्रदा के बहाने अमर को लेकर ही अपनी नाराज़गी को ज़ाहिर करते रहे. ये बात सभी समझ रहे थे...लेकिन बोलता कोई नहीं था. अब सबकुछ सामने आ चुका है. कहने-सुनने की भी सूरत नहीं बची है.

अमर पाक साफ नहीं तो आज़म भी दूध के धुले नहीं हैं...लेकिन जब मुलायम से जी भर खरी-खोटी सुनने के बाद आज़म ख़ान ने अपनी बात रखने की कोशिश की गला भर आया. वे 25 साल की दोस्ती की बात दुहराते नज़र आए. उन्होंने लाख नाराज़गी के बाद भी सार्वजनिक रुप से मुलायम को बुरा नहीं कहा. यही वो वजह थी कि आज़म का मन भारी था.

मुलायम की बस चलती तो अमर सिंह के दबाव में उन्होंने आज़म ख़ान को कब का बाहर का रास्ता दिखा दिया होता. ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि आज़म एक बड़े मुस्लिम नेता भी हैं. यानी दोस्ती...विचारधारा...इन सब बातों की मजबूरी नहीं थी...लाचारी थी तो वोटबैंक की.

दरअसल ये राजनीति का चेहरा बन चुका है. कहीं अमर हैं तो कहीं कोई और है. ऐसे लोग तो हर जगह हैं. अमर सिंह जैसा दोस्त मिलने पर बाक़ी दूसरों की क्या ज़रूरत. आज़म शायद इस बात का ख़्याल नहीं रख पाए...इसलिए अपना गुस्सा खुलकर ज़ाहिर करते रहे. वरना चुप रहने के सिवा दूसरा रास्ता पहले ही कहां था.

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