हे जगदम्बा,..तू ही अवलम्बा,..तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,...न ही कोई हित,..न ही परतीत,..न ही मोरा गइंठी में एको रूपैया....ये एक गीत है. नदियों को देवी समझ पूजने वाली बिहार की महिलाएं बाढ़ की इस विपदा में इसे गा रही हैं. अपनों की जान सलामत रखने के लिए,..कर जोड़कर,..कर रही हैं विनती. माँ तेरा ही सहारा है,..कोई और सुध लेने वाला नहीं है,...न कोई अपना है,..न जान पड़ता है....गइंठी (साड़ी के पल्लू के छोर को बांधकर बनी झोली) में अब एक रूपया भी नहीं.
इस गीत में दर्द है..बेबसी है..अंतिम समर्पण है,..साथ तमाम आशंकाओं के बीच बची-खुची आशा भी है. पर सिर्फ भगवान से. बाढ़ पीड़ित समझ रहे हैं...कि क्या होने वाला है. तीस लाख से ज्यादा लोगों की उम्मीदें अब सिर्फ ऊपरवाले पर ही टिकी हैं.
लोग ज़िंदा इसलिए हैं क्योंकि वो मरना नहीं चाहते. चारों तरफ पानी. छत पर भूखे-प्यासे लोग पड़े हैं. बच्चों को चुप भी कराना है. ख़ुद को भी बचाकर रखना है.
हफ्ते भर बाद हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट सुनकर लगता है,...जैसे जान में जान आई. पर हेलीकॉप्टर राहत का सामान गिराए भी तो कहां,...छोटी सी छत पर अनगिनत लोग जमा हैं. ऐसे में राहत सामग्री पहुंचाई नहीं जा सकती.
हेलीकॉप्टर वापस लौट जाता है. फिर सुबह-सुबह सुनाई देती है,...मोटर बोट की आवाज़. नीचे आए बोट को देखकर आपाधापी मच जाती है. बच्चों को कांधे पे उठाए महिलाएं,..तेज़ी से नीचे उतरती हैं. कमर भर पानी में भी सरपट भागती हैं. रोती-चिल्लाती....अंतिम हथियार,....ताकि बोट तक सबसे पहले पहुंच जांय.
इतने लोगों के लिए बोट नाकाफी है,..अब क्या किया जाय. फिर ढाढ़स मिलता है,..हम जल्द आ रहे हैं.....पर इतना धीरज किसे है. ..बाक़ी बचे लोग कलपने लगते हैं. पर कोई चारा नहीं. अब अगली बारी कब आएगी. कोई नहीं जानता. तब तक कैसे जिएं लोग.
शौच तक की दिक्कत है. सालों ज़िंदगी जिस समाज में जी,...अचानक लाज-शर्म को कैसे छोड़े कोई. नीचे पानी ही पानी है...और यहां...लोग ही लोग....
बार-बार लोग सोचते हैं,..ये मौत से भी बदतर ज़िंदगी है. पर मरने की कोई नहीं सोचता...बच्चों का मुंह देख कर जीने का दिल करता है. ख़ुद के लिए नहीं इनके लिए.
बुज़ुर्गों का कोई पूछनहार नहीं. रोते हुए बच्चों के आगे वे अपनी भूख,...अपनी कमज़ोरी का ज़िक्र करने तक की हिम्मत नहीं करते. चुप रहते हैं. लोगों को हौसला क्या दें. उनका कौन सा अनुभव इस मुश्किल से उबरने का दूसरों को रास्ता दिखाएगा. वो तो पीड़ितों की संख्या बढ़ाने वाले अवांछित तत्व हो गए हैं.
वे बस गीत गा सकते हैं,....हे जगदम्बा....तू ही अवलम्बा.....तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,,....आस गए तेरी दासी हूं मैं प्रभु,..डूबल नाव तुम्ही हो खेवैया,...
बुधवार, 3 सितंबर 2008
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9 टिप्पणियां:
मरना नहीं चाहते है, इसलिए जिंदा है. एक वाक्य बाढ़ में फंसे लोगों की पीड़ा व्यक्त करने के लिए काफी है.
अमितभाई, चिट्टाजगत में जाकर अपना ब्लॉग लिंक कर लीजिए, कोड अपने ब्लॉग पर चिपका लीजिए. पोस्ट होते ही आपकी पोस्ट चिट्ठाजगत में दिखने लगेगा. इससे आपका बहुमूल्य विचार बहुत लोगों तक पहुंचेगा.
सजीव चित्रण... मार्मिक पोस्ट... क्या कहें, मन पहले से ही दुःखी है।
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ये शब्द पुष्टिकरण फालतू चीज है, कृपया इसे हटा लें
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Aapane vastavikata pesh ki hai!...uttam kriti
बाढ़ के द्र्श्य देख कर हमारा भी दिल दहल गया था।
मरना नहीं चाहते है, इसलिए जिंदा है.
Hats Off!! in a line u bring out the true condition.
जबरदस्त चित्रण इस भीषण त्रासदी का. गजब!!
जब सरकार कुछ न कर सके तो भगवान को ही याद करना बेहतर है। कम से कम भगवान से तो उम्मीद बाकी है।
सुंदर चित्रण बधाई स्वागत निरंतरता की चाहत
समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर भी पधारें
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