दिल्ली में आतंकियों ने इस बार फूल बाज़ार में बम रखे...फिर हुआ धमाका...आगे की कहानी वही....जो हर बार की है. यही हालत है अपने देश की. आतंकियों के आगे बेबस सी दिखती है सरकार....सलीके से जीने को लेकर गृहमंत्री पर मज़े लेती मीडिया...खुफिया एजेंसियों की बाल की खाल निकालते कलमकार ...ऐसे ही चल रहा है अपना देश...
रोजी रोटी से अलग सोचने की महानगरों में किसे फुर्सत है. मुसीबत में एक होने का जज्बा न्यूज़ स्टोरी के पैकेज में ही अच्छा लगता है....पर हकीकत इससे बहुत अलग है. टुकड़ों में बंटी हमारी ज़िंदगी एक-दूसरे से इतना दूर कर जाती है,..कि देश के लिए सोचने की तरफ तो ध्यान भी नहीं जाता.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे में बड़ी ताक़त बनकर उभरता है. पर कुछ समय के लिए...उसके तेवर मौसमी हैं,...पलटबाज़ी करने में ,..रंग बदलने में उसका सानी नहीं...कब क्या कह जाय,...कब क्या कर जाय कुछ ठिकाना नहीं. हिंदी में शब्द है,...अन्मयस्क...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बिल्कुल सटीक बैठता है. रोज-रोज का बंदर नाच उसके अंदर की कहानी ख़ुद ब ख़ुद बता रहा है.
पैसों ने पत्रकारों के दिमाग को कुंद कर दिया है...बस पैकेज नज़र आ रहा है...इसलिए दुधारी गाय की दुलत्ती भी सही जा रही है. जो लिखा जा रहा है,..उसका मक़सद कुछ और है. जो दिखाया जा रहा है उसका मक़सद कुछ और है...तय है कि इसके केंद्र में देश नहीं.
उधर,..आतंकी..हैं...वे बेफिक्र हैं...वो धमाकों के बाद टीवी के सामने बैठकर लाशों की गिनती करते हैं...वे जानते हैं कि सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में सबकी ख़ैर कौन कर सकता है. कितने आतिफ को गोलियों से भूनोगे,...कितने तौक़ीर की तलाश करोगे,...पहले जान तो लो इनकी तादाद कितनी है.
इंडिया गेट पर पुलिस लगाओगे,..तो कनाट प्लेस के कूड़ेदान में करेंगे धमाके,....वहां पुलिस लगाओगे तो फूल बाज़ार में करेंगे धमाके,...सड़क-चौक-चौराहे,...कूड़ेदान,..फूलदान..देश में हर जगह पहरा नहीं बिठाया जा सकता है...मेरे भाई.
देश का नासूर क्या है,....वो साफ है. पर कोई सच बोलने की हिम्मत नहीं करता है. इसी देश में एक तरफ महेश चंद शर्मा को शहीद बताया जाता है,..तो दूसरी तरफ उनके बदन में गोलियां उतारने वालों के समर्थन में हज़ारों लोग खड़े होते हैं.
इनके लिए क्या कहें...पर कुछ तो कहना होगा. सच बोलने की शुरूआत करनी होगी. गुनिए..चुनिए...फिर बोलिए...वक्त यही है.....अब तो जागो देश मेरे.
शनिवार, 27 सितंबर 2008
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1 टिप्पणी:
फिल्म यशवंत का एक डायलॉग याद आ गया-
सुबह उठो,
काम पे जाओ
शाम को घर आओ
दारू पीओ
और एकबार फिर मर जाओ
हम और हमारे अंदर का इंसान मर चुका है,
जीने के लिए घिनौने समझौते कर चुका है,
इसलिए तो एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है.
टोपी लगाए मच्छर कह रहा है
देश के लोगों में समता की भावना आ रही है
इसलिए तो बड़ी मछली छोटी को खा रही है.
शैतान की नायायज औलाद तहलका मचा रही है
और हम भगवान के चहेरे जानवर इंसान
जीवन को गाली बनाए बैंठे हैं.
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