झारखंड की राजनीति शिबू सोरेन के बिना अधूरी है. वे प्रदेश के सबसे दिग्गज राजनेता हैं. कितने ही आरोप उन पर लगे...पर उनकी सौम्यता और आम लोगों से उनका सरोकार...सबको उनकी ओर खींचता है. आदिवासी समाज में उनका कद पहले जैसा नहीं...पर शिबू आम राजनेता नहीं बल्कि ख़ास हैं.
उनकी छवि के साथ जो सबसे बड़ा संकट जुड़ा है वो है विश्वसनीयता का. उन पर परिवारवाद का आरोप लगता है,..और ये सही भी है. उन्होंने दोनों बेटों को अपने राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया है। खुद कभी इसे स्वीकार नहीं किया पर ये जगज़ाहिर है. इसको लेकर पार्टी टूटी...पर शिबू पर असर नहीं हुआ. रिश्वतखोरी से लेकर हत्या तक के आरोप उन पर हैं. पर वे आज भी अपने दम पर झारखंड में सबसे ज्यादा भीड़ जुटाते हैं. कार्यकर्ताओं पर भड़क उठते हैं,..करारी डांट लगाते हैं...फिर भी लोग उन्हें चाहते हैं. पर सवाल ये है कि आखिर शिबू क्या चाहते हैं।
सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. मधुकोड़ा की सहमति के बाद उन्हें ये दिन नसीब हुआ. एक निर्दलीय मुख्यमंत्री के रूप में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहकर कोड़ा ने विश्व रिकॉर्ड बनाया तो ये शिबू का आशीर्वाद ही था. ये हम नहीं कह रहे ख़ुद कोड़ा कहा करते थे. वे कहते थे जब भी शिबू आदेश करेंगे,...कुर्सी ख़ाली करते उन्हें देर नहीं लगेगी. पर जब वक्त आया तो वे अपनी बातों से पीछे हट गए। पर शिबू उन्हें मनाने के जतन में लग गए। कोड़ा को ये पता था कि इतनी आसानी से किनारे लगना उनके लिए घाटे का सौदा होगा,...नई सरकार में उनकी भूमिका क्या होगी,...ये पहले तय कर लेना था. दोनों चाहते थे कि कुछ न कुछ समझौता हो. राजनीतिक सौदेबाज़ी का जो खेल झारखंड में चल रहा है उसकी ये पराकाष्ठा नहीं थी,... एक उदाहरण भर था. ना..ना..करते मधु कोड़ा और शिबू साथ बैठे और लालू ने उनके बीच सुलह कराई....या कह सकते हैं....समझौते की शर्तें तय की. ये शर्तें क्या होंगी...इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
आश्चर्य की बात है कि शिबू ने सब कुछ स्वीकार लिया. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। पर यही वो बात है जिसकी वजह से झारखंड की राजनीति को ये दिन देखना पड़ रहा है।
शिबू को मुख्यमंत्री बनने की बेताबी आज से नहीं है तब से है जब बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. लालू उनकी बेताबी को जानते थे...सो इसे जमकर भुनाया. कभी झारखंड स्वायत्त परिषद का गठन कर शिबू को उसका मुखिया बनाया,...तो कभी केंद्रीय मंत्री बनवाने में मदद की. पर सत्ता सुख भोगने में भाग्य ने झामुमो सुप्रीमो का साथ नहीं दिया. एक बार मुख्यमंत्री बने भी तो गद्दी छोड़नी पड़ी. अब नई पारी में वे कब तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे कोई नहीं जानता...ख़ुद शिबू नहीं. पर साध पूरी करनी थी. और ये पूरी हुई. पर क्या उनके मुख्यमंत्री बनने से आम लोगों की साध पूरी हो पाएगी।
ये सोचकर देखिए कि अगर शिबू पद से दूर रहते और आदिवासी समाज के विकास के लिए अपने शुरूआती दिनों की तरह काम करते तो कहां होते...न केवल वो...बल्कि उनका नया बना प्रदेश भी.
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
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