रविवार, 31 अगस्त 2008

आतंकियों का समर्थन करने वालों का क्या होगा ?

सिमी आतंकवादी संगठन नहीं है. ये कहना है देश के दो केंद्रीय मंत्रियों का,..एक हैं रेलमंत्री लालू प्रसाद और दूसरे हैं इस्पात और उर्वरक मंत्री रामविलास पासवान. लालू राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और रामविलास लोजपा के सुप्रीमो. इनसे अलग एक और नेता हैं,...मुलायम सिंह यादव,..सिमी से इनका प्रेम जगज़ाहिर है. आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की पुष्टि के बाद भी ये नेता खुलकर सिमी के पक्ष में बयान दे रहे हैं. केंद्र की एजेंसियों के पास इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि सिमी की गतिविधियां राष्ट्रविरोधी रही हैं. सुप्रीम कोर्ट तक ने उस पर प्रतिबंध जारी रखने का निर्देश दिया है. बावजूद इसके ये नेता अपने ही सुर में बोल रहे हैं.

प्रतिबंधित संगठन की तरफदारी को लेकर पूछे गए सवाल का उनके पास सीधा जवाब नहीं. बदले में कहते हैं कि सबसे पहले आरएसएस और संघ परिवार के दूसरे संगठनों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. ये जवाब नहीं शर्त है. ताज्जुब की बात है कि ये बातें वे कैबिनेट की बैठक में क्यों नहीं करते. और अगर करते हैं तो उनका प्रस्ताव स्वीकार क्यों नहीं किया जाता. अगर नहीं किया जाता है तो इसके पीछे की वजह क्या है. क्या केंद्र के पास संघ परिवार के संगठनों को प्रतिबंधित करने को लेकर पर्याप्त आधार है,..इस सवाल का जवाब ये नेता नहीं देते.

तुष्टिकरण के आरोप नए नहीं हैं,...पर वाकई ये क्या है. इसे कोई नहीं जान पाया है. अगर ये माना जाए कि अल्पसंख्यकों को ख़ुश करने के लिए ये नेता सिमी के समर्थन में बयान दे रहे हैं. तो फिर मसला बड़ा है.

संघ परिवार के संगठन देशविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं या नहीं इसको लेकर पक्के तौर पर सरकार भी कुछ नहीं कह पा रही. पर सरकारी फाइलों में आतंकवादी संगठन के रूप में दर्ज सिमी का समर्थन करने का मामला साफ है,...तो क्या इन केंद्रीय मंत्रियों पर नकेल कसी जाएगी.

शनिवार, 30 अगस्त 2008

एक लाइन और जोड़ लीजिए...

राजस्थान की राजधानी जयपुर से चालीस किलोमीटर दूर कालाडेरा गांव में इन दिनों हलचल है. हर विचारधारा के लोग यहां एकजुट दिख रहे हैं. आंदोलन है कोका-कोला के ख़िलाफ. ठंडा मतलब कोका-कोला,..यहां अब लोगों की समझ में नहीं आ रहा बल्कि लोग कह रहे हैं,...बर्बादी मतलब कोका-कोला.

वे इसके स्वाद पर उंगलियां नहीं उठा रहे,..न ही इसमें कीटनाशकों की मौजूदगी उनके लिए मुद्दा है. उनके मन में आशंकाएं तभी से थीं जब कंपनी 1999 में यहां आई थी. पर कोक ने तब उन्हें मना लिया था. खेती और पशुपालन कर रोज़ी कमाने वाले स्थानीय लोगों से रोज़गार का वायदा किया गया था. उन्हें कई विकास के सपने दिखाए गए थे.

पर अब ग्रामीण कोका-कोला के ख़िलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं. उनका कहना है कि इस प्लांट के बिना बंद हुए हम चैन से नहीं बैठेंगे. दरअसल इस प्लांट की वजह से उनकी रोज़ी पर संकट है. लोगों का कहना है कि पिछले नौ सालों में यहां का भूजल-स्तर इतनी तेज़ी से नीचे गया है कि खेती संभव नहीं. घाटे की वजह से यहां का लगभग हर किसान कर्ज़दार हो चुका है. ज़मीन से पानी खींचना ख़ासा महंगा है. कभी बीस से तीस फीट पर मिलने वाला पानी बरसात के इस मौसम में अब सवा सौ फीट से भी नीचे जा चुका है.

कहते-कहते वे थक गए पर कंपनी ने न तो उन्हें मुआवज़ा दिया न ही सरकार की तरफ से उन्हें मदद का भरोसा मिला. हद तो यह है कि सत्ताधारी भाजपा के नेता उल्टे किसानों से ही बीच का रास्ता निकालने की बात कह रहे हैं. बाक़ी की बात छोड़िए. ये स्वदेशी की बात करनेवाली पार्टी की स्थिति है. राजनीति गरम है,..पर उसमें गंभीरता नहीं. लेकिन किसानों को ख़ुद पर विश्वास है. वे सड़कों पर उतर रहे हैं,...गांधीवादी से लेकर वामपंथी और दक्षिणपंथी तक.

कोका-कोला बेवरेजेज इंडिया लिमिटेड के स्वामित्व में ये प्लांट यहां लगा है,... कंपनी ने स्थिति के आकलन का ज़िम्मा ' टेरी' नाम की संस्था को सौंपा,...इसकी रिपोर्ट आ चुकी है. हैरत की बात है कि इसमें किसानों के आरोपों को सच बताया गया है. रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि इलाक़े में भूजल-स्तर साल-दर-साल किस तरह नीचे गया है. इसके बाद कहने को कुछ नहीं बचा है. पर सरकार और कोका-कोला दोनों का रूख़ इस मामले पर एक है. दोनों ही चुप हैं.

एक कुख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत के सुदूर गांव में पहुंचकर किसानों की रोज़ी को छीन रही है,...और सरकार चुप है. हद है. कोका-कोला मोटा लाभ कमाने के लिए जानी जाती है,...लोगों को शीतल पेय के नाम पर ज़हर पिलाने के लिए जानी जाती है. पर सरकार का साथ उसे ही मिल रहा है. इस लड़ाई में किसान अकेले हैं.

ये अपना देश है. नाम है हिंदुस्तान. यहां सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोग खेती पर आश्रित हैं. इस देश की आत्मा गांवों में बसती है. बचपन से हम सब ये सुनते आए हैं. और आज भी सुन रहे हैं,...एक लाइन और जोड़ लीजिए. भारत एक बहरा देश है,..उसे अपनी आत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती.

ख़बर अभी अधूरी है

कोसी के आए उफान ने उत्तर बिहार का नक्शा बदल दिया है. बाढ़ का पानी उतरने दीजिए. तब पूरी हक़ीक़त सामने आएगी. हालात यहां तक कैसे पहुंचे. ये सब जानते हैं. पर तबाही कितनी हुई है...इसके बारे मुकम्मल तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.

नदी के किनारों पर आबादी बसती है. पर जब आबादी के बीच नदी आ जाए,..तो क्या होगा. बिहार में यही हुआ है. गांवों का दर्द कोई नहीं जानता. आसमानी तस्वीरें सबके पास नहीं है.


राज्य सरकार के अनुरोध को सुनने में केंद्र ने बिल्कुल देरी नहीं की. ऐसा पहले शायद ही हुआ हो...राज्य और केंद्र में सरकारें एक रहीं तो ऐसा हुआ है,..पर ज्यों की त्यों मांगें मानने के उदाहरण न के बराबर हैं.. साफ है कि बिहार में बहुत कुछ हो गया है... इतना कि अभी सच कह देने में सरकार को संकोच है. नीतीश और लालू के बीच लाख मतभेद हों,...पर दोनों इसे प्रलय की संज्ञा दे रहे हैं. प्रधानमंत्री ने तनिक भी देरी नहीं की. मुख्यमंत्री ने जो मांगा,.. केंद्र ने उसे हू-ब-हू स्वीकार कर लिया.

हम जो कहने की कोशिश कर रहे हैं,..उसे महज़ कयास न समझें....सबसे क़रीबी सच यही लग रहा है कि राज्य में भयंकर त्रासदी हुई है. और ये सबसे ज़्यादा गांवों में हुई है.


ये आपदा इतनी ही नहीं है जो दिख रही है,..या जो टीवी चैनलों पर दिखाई जा रही है. अख़बारों में अपीलिंग छायाचित्र प्रकाशित होते हैं. टीवी चैनलों पर इससे ज्यादा पहलू दिखता है,..पर दिखेगा वहीं का,...जहां पत्रकार पहुंचेंगे. उनके लिए नाव से जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं. मोटरबोट पर सवार होकर कितने लोग जा पाएंगे और कितने अंदरूनी इलाक़े में जा पाएंगे. सच यही है कि प्रभावित इलाक़ों के अधिकांश हिस्से में अभी राहतकर्मियों और ख़बरनवीसों को जाना है. वे जा नहीं पाए हैं.

शहरों में छतें लगभग सभी घरों में होती हैं. गांवों में ये गिनती के होते हैं. तो फिर अचानक आई बाढ़ के बाद लोग कहां गए होंगे. गांवों में नावें कहां थीं कि लोग सुरक्षित स्थानों पर समय रहते निकल जाते. अगर पानी अचानक बढ़ा होगा तो क्या हुआ होगा.

बिहार सरकार ने हर गांव में एक ऊंचे चबूतरे के निर्माण की बात कह रखी थी,..पर योजना को अभी पूरी तरह से अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका था. ऐसे में फौरी राहत के लिए लोगों के पास विकल्प सीमित थे. वे पेड़ों पर चढ़े होंगे,..एक घर की छत पर दर्जनों होंगे,...कौन जाने,..सैंकड़ों होंगे. पर कब तक इंतज़ार कर पाएंगे ये लोग. इनकी पीड़ा,..इनकी मुश्किलें मीडिया में कहां दिख रही हैं...पर ख़बर तो वहीं है. ऐसे में फिलहाल ख़बर अधूरी है.

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

शिबू क्या चाहते हैं ?

झारखंड की राजनीति शिबू सोरेन के बिना अधूरी है. वे प्रदेश के सबसे दिग्गज राजनेता हैं. कितने ही आरोप उन पर लगे...पर उनकी सौम्यता और आम लोगों से उनका सरोकार...सबको उनकी ओर खींचता है. आदिवासी समाज में उनका कद पहले जैसा नहीं...पर शिबू आम राजनेता नहीं बल्कि ख़ास हैं.

उनकी छवि के साथ जो सबसे बड़ा संकट जुड़ा है वो है विश्वसनीयता का. उन पर परिवारवाद का आरोप लगता है,..और ये सही भी है. उन्होंने दोनों बेटों को अपने राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया है। खुद कभी इसे स्वीकार नहीं किया पर ये जगज़ाहिर है. इसको लेकर पार्टी टूटी...पर शिबू पर असर नहीं हुआ. रिश्वतखोरी से लेकर हत्या तक के आरोप उन पर हैं. पर वे आज भी अपने दम पर झारखंड में सबसे ज्यादा भीड़ जुटाते हैं. कार्यकर्ताओं पर भड़क उठते हैं,..करारी डांट लगाते हैं...फिर भी लोग उन्हें चाहते हैं. पर सवाल ये है कि आखिर शिबू क्या चाहते हैं।

सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. मधुकोड़ा की सहमति के बाद उन्हें ये दिन नसीब हुआ. एक निर्दलीय मुख्यमंत्री के रूप में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहकर कोड़ा ने विश्व रिकॉर्ड बनाया तो ये शिबू का आशीर्वाद ही था. ये हम नहीं कह रहे ख़ुद कोड़ा कहा करते थे. वे कहते थे जब भी शिबू आदेश करेंगे,...कुर्सी ख़ाली करते उन्हें देर नहीं लगेगी. पर जब वक्त आया तो वे अपनी बातों से पीछे हट गए। पर शिबू उन्हें मनाने के जतन में लग गए। कोड़ा को ये पता था कि इतनी आसानी से किनारे लगना उनके लिए घाटे का सौदा होगा,...नई सरकार में उनकी भूमिका क्या होगी,...ये पहले तय कर लेना था. दोनों चाहते थे कि कुछ न कुछ समझौता हो. राजनीतिक सौदेबाज़ी का जो खेल झारखंड में चल रहा है उसकी ये पराकाष्ठा नहीं थी,... एक उदाहरण भर था. ना..ना..करते मधु कोड़ा और शिबू साथ बैठे और लालू ने उनके बीच सुलह कराई....या कह सकते हैं....समझौते की शर्तें तय की. ये शर्तें क्या होंगी...इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

आश्चर्य की बात है कि शिबू ने सब कुछ स्वीकार लिया. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। पर यही वो बात है जिसकी वजह से झारखंड की राजनीति को ये दिन देखना पड़ रहा है।

शिबू को मुख्यमंत्री बनने की बेताबी आज से नहीं है तब से है जब बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. लालू उनकी बेताबी को जानते थे...सो इसे जमकर भुनाया. कभी झारखंड स्वायत्त परिषद का गठन कर शिबू को उसका मुखिया बनाया,...तो कभी केंद्रीय मंत्री बनवाने में मदद की. पर सत्ता सुख भोगने में भाग्य ने झामुमो सुप्रीमो का साथ नहीं दिया. एक बार मुख्यमंत्री बने भी तो गद्दी छोड़नी पड़ी. अब नई पारी में वे कब तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे कोई नहीं जानता...ख़ुद शिबू नहीं. पर साध पूरी करनी थी. और ये पूरी हुई. पर क्या उनके मुख्यमंत्री बनने से आम लोगों की साध पूरी हो पाएगी।

ये सोचकर देखिए कि अगर शिबू पद से दूर रहते और आदिवासी समाज के विकास के लिए अपने शुरूआती दिनों की तरह काम करते तो कहां होते...न केवल वो...बल्कि उनका नया बना प्रदेश भी.

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

ऐसे ही लटकाओ आतंकियों को...

आतंकियों ने जम्मू में बुधवार की सुबह से ही ख़ून की होली खेलनी शुरू कर रखी थी...घूम-घूम कर शहर भर में गोलियां बरसाईं. जो सामने आया,..उसे भून कर रख दिया। इसके बाद एक घर में महिलाओं और बच्चों को बंधक बनाकर ख़ुद के लिए सुरक्षित रास्ता तलाशने लगे. वे जानते थे कि भारत जैसे देश में इसकी पूरी संभावना है. पर ऐसा नहीं हुआ. सेना ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। बुजदिलों को मौत की आहट साफ सुनाई दे रही थी। इसलिए उन्होंने अपने पास मौजूद गोला बारूद का भरपूर इस्तेमाल किया। पर कब तक...जान लेने या देने की तैयारी करके आए जवानों को साफ संदेश मिला था, ..संदेश था सफाए का. बहुत हो चुका...संदेश था मौक़े पर ही आर या पार कर देने का. आख़िरकार आतंकियों को ढेर करने का सिलसिला शुरू हुआ. एक दुस्साहसी आतंकी ने जैसे ही मकान से बाहर निकलकर गोलियां दागनी शुरू की. मकान की छत पर निशाना साधे बैठे जवान ने उसे अपनी गोलियों का निशाना बना लिया। इसके बाद उसकी लाश को जवानों ने छत पर खींच लिया। टीवी चैनलों पर ये दृश्य दिखाए जा रहे थे। बहुत दिनों के बाद ऐसी तस्वीर दिखी थी। बांग्लादेश राइफल्स(बीडीआर) ने एक बार बीएसएफ के जवानों की लाशें बांस में बांधकर जानवरों की तरह लटकाकर भारत भेजी थीं...तब देश का ख़ून खौल उठा था. पर नेता चुप्पी साधे रहे. देश समझने लगा कि ये भारत की नीति है. हमारी पुश्तैनी नीति है. पर इन दृश्यों ने कुछ तो जताया है. संकेत समझे जा सकते हैं कि अब सहने की सीमा पार हो गई है. और अब हर दुस्साहस का ऐसा ही जवाब दिया जाएगा.

बुधवार, 27 अगस्त 2008

बाढ़ के बाद की पहचान

बिहार कमाऊ पूत नहीं है,..इसलिए देश का उपेक्षित बेटा है....यहां केवल आबादी है,..लफ्फाजी है,...पूंजी नहीं है,...इसलिए इसकी कोई कद्र नहीं....मीडिया में बिहारियों का बर्चस्व है,...पर उन पत्रकारों का पेट दूसरे प्रदेशों की कमाई से भरता है,...इसलिए कुछ पल शोक मनाने के सिवाय बाक़ी समय वे यथास्थितिवादी हो जाते हैं. बताते हैं बिहार फिर बाढ़ का क़हर झेल रहा है...बात यहीं ख़त्म. अगर बिहार हर साल बाढ़ की तबाही झेलने को अभिशप्त है,..तो क्या इसे उसकी नियति मान लिया जाय. क्या कोई रास्ता नहीं,...हालात को बदतर होने देने से बचाने का. क्या कुछ नहीं हो सकता....करोड़ों की आबादी की हर साल होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए.

बिहार से पलायन करने वाले मज़दूरों के भार से देश के महानगर दबे जा रहे हैं. झुग्गियों में भी जगह नहीं,..उन्हें स्वीकारने की. पर कोई ये तस्दीक करना नहीं चाहता कि ये मज़दूर कौन हैं. ये गांव में रहकर खेती-किसानी कर कमाने वाले ज्यादातर उत्तर बिहार के वे लोग हैं. जिनकी बची-खुची कमाई को हर साल बाढ़ लील लेती है....खेतों में बालू छोड़ रोज़ी रोटी का रास्ता बंद कर देती है. टूटी सड़कों से मीलों चलकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ करना उनके लिए दु:स्वप्न साबित होता है. गांव में महाजन तक नहीं जो कर्ज़ दे,...क्योंकि वसूली की कोई गारंटी नहीं. ऐसे में कुछ भी करने को अभिशप्त होते हैं ये बाढ़-पीड़ित. इनमें सीमांत किसानों से लेकर,...मज़दूर तक सभी होते हैं. कोई और चारा नहीं. घर परिवार को छोड़कर ये चले जाते हैं,..बहुत दूर,..गालियां खाने,...गोलियां खाने. जिल्लत की ज़िंदगी जीने,....हर जाती ट्रेन की जनरल बॉगी सितम्बर से भरी नज़र आती हैं.

इतनी बड़ी तबाही. राहत के कोई इंतज़ाम नहीं. अपने दम पर खड़े होने की चुनौती. सब कुछ सह जाते हैं जीवट के ये धनी लोग. पर आपने कभी नहीं सुना होगा कि बिहार में किसी किसान ने आत्महत्या की. सब कुछ सहेंगे पर प्रदेश पर ये कलंक नहीं. असम, मणिपुर में उल्फा, बोडो और कुकी उग्रवादियों के शिकार बनते हैं,...कश्मीर घाटी से सब कुछ छीनकर भगा दिए जाते हैं,...कभी पंजाब में लाइन में खड़े कर भून दिए जाते थे,....तो अब महाराष्ट्र से लतियाकर भगा दिए जाते हैं,....ये सब यही तो हैं.

थक हार कर बैठना मंज़ूर नहीं. इसलिए कहीं भी चले जाते हैं. कुछ भी कर लेते हैं. मिल जुल कर रह लेते हैं. नोयडा के किसी मोड़ पर प्लास्टिक तानकर पेड़ के नीचे किए गए छांव में मकुनी खाते ये लोग,...मिल बैठकर रोटी बनाते ये लोग,....भरी दुपहरी में जालीदार बनियान पहने,...पसीने से तर रिक्शा चलाते ये लोग,...बरसात में पॉलीथिन की टोपी बनाकर सड़क किनारे ख़ुद को बचाते ये लोग. कभी पहचानने की कोशिश करिए,..पता मिलेगा बिहार,...बिहार में उत्तर बिहार...सहरसा, मधेपुरा,...सुपौल, कटिहार, पूर्णिया,..यही है बाढ़ पीड़ितों की बर्बादी के बाद की पहचान.
आज चर्चा शुरू हुई है,..जब कोसी ने धारा बदल दी. जब सब कुछ उजड़ गया...राष्ट्रपति ने भी मुख्यमंत्री को फोन किया...संवेदना जताई....पर सच्चाई ये है कि इनकी याद फिर कभी नहीं आएगी. आज सब संवेदना जता रहे हैं,....पर दिल्ली की सड़कों पर कुछ महीने बाद रिक्शा चलाते इन चेहरों को कोई नहीं पहचान पाएगा.