शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

रास्ते और भी हैं



मंदी ने निजी क्षेत्र को सबसे ज़्यादा चोट पहुंचाई है. इसकी मार की वजह से नौकरियों पर तलवार लटकनी स्वाभाविक है,...लेकिन मंदी के बहाने अधिकांश जगहों पर प्रबंधन अपनी गोटी लाल कर रहा है. श्रमशक्ति के इस्तेमाल के लिहाज से हर कंपनी की व्यवस्था सटीक नहीं होती..ऐसे में मौजूदा दौर उनके लिए कई मुश्किलों के साथ बेहतरीन अवसर भी लेकर आया है...हमारा इशारा छंटनी की तरफ है. कई बड़ी कंपनियों ने जिस तरह अपने सालों पुराने कुशल कामगारों को बाइज्जत विदा किया ,..उससे ये बात साबित होती है.

आप लायक हैं,...हमारे विकास में आपके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. लेकिन हम लाचार हैं...मजबूर हैं....कोई और रास्ता नहीं..और आख़िरी शब्द-युग्म....”आपको जाना ही होगा.”

नौकरी ख़त्म होना अंतिम बात नहीं होती...इससे आगे उम्मीदें,..आशाएं,...सपने...ऐसी कई बातें हैं जिन पर आघात होता है. ये सवाल अब सोचने को विवश कर रहा है कि क्या मुश्किल के इस वक़्त में नौकरियों को ख़त्म करना ही अकेला रास्ता बचा है. सच तो ये है कि अगर वाक़ई किसी कंपनी पर मंदी का सीधा असर है...तो वो अपने कर्मचारियों को नुक़सान के लिहाज से वेतन में कटौती के लिए विश्वास में ले सकती है.

अगर सच्चाई के साथ प्रबंधन पूरी तस्वीर कर्मचारियों के सामने रखे...तो अपने दोस्तों को नौकरी से हटाने की जगह ज़्यादातर लोग मुश्किल वक्त साथ-साथ बिताना पसंद करेंगे. वे इस बात से शायद ही पीछे हटेंगे कि उनके वेतन में ज़रूरी कांट-छांट हो जाय लेकिन किसी की नौकरी न जाय. कई कंपनियों में ऐसा हुआ भी है...लोग हालात को समझते हैं और ज़िद की कोई वजह नहीं है. लेकिन बिना ठोस वजह के मंदी का बहाना बनाना सही नहीं है.

इसमें शर्म की क्या बात है?

स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर कई बातें हो रही हैं. ज्यादातर लोग यही कह रहे हैं कि ये भारत की गरीबी को दिखाने वाली फिल्म है. उनके मुताबिक हिन्दुस्तान के अंधेरे कोने पर ही फिल्मकार का कैमरा केंद्रित रहा है. ये कहना कुछ अजीब सा लगता है कि स्लमडॉग मिलेनियर इस वजह से सफल हुई कि उसमें भारत की गरीबी दिखती है.

इस फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई थी,...एक के बाद एक संयोग का ख़ूबसूरत फिल्मांकन,...और इससे आगे आपस में उलझने की बजाय सुलझते जाते कथा-तंतु। स्लमडॉग के आगे बढ़ने की कहानी में भारत के सभी शेड हैं. मुश्किल बस इतनी है कि भारत को किसी विदेशी फिल्मकार ने बड़े ही क़रीब से समझने की कोशिश की है...ये प्रयास क़ामयाब रहा है. यही वो वजह है कि हमारे कई दोस्तों को ये बातें चुभ रही हैं. मुगालते में जीने की बात तो हम में है...वरना फिल्म में बुरा क्या है. कोई ये तो बताए कि डैनी बॉयल ने हक़ीक़त से उलट क्या बातें फिल्म में दिखलाई हैं. पूरी सच्चाई सैल्युलाइड पर नहीं उतर सकती. लेकिन जितनी उतर सकती है उनमें से कई स्लमडॉग में हू-ब-हू नज़र आई है. भुलावे और छलावे में वक्त गुज़ारने की आदत हमारी है.

बॉलीवुड में कितनी फ़िल्में बन रही हैं जिसमें ग्रामीण भारत,...झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाला भारत,..अपने हाल पर जीने को मजबूर,...जीने के लिए हर समझौता करने को तैयार लाचार भारत की कहानी दिखती है....गिनती की फिल्मों को छोड़कर कहां देख पाए हैं हम..अपना देश...अपनी धरती....धरती-पुत्रों की कहानी...युवाओं का संघर्ष, बेरोज़गारी की व्यथा, भ्रूण हत्या...शेयर बाज़ार की लूट. सपना तो ये सब है,...हमें डर लगता है कि कहीं कोई हमारा चेहरा न देख ले...ये डर क्यों है?,…हम छुपाना चाहते हैं दुनिया से अपनी हक़ीक़त. नहीं जताना चाहते कि हम क्या हैं. दरअसल हम चमक रहे हैं इसलिए अपना देश भी हमें चमकता हुआ नज़र आता है.

हम झुग्गियों में रहने वाले लोगों को अपने देश का बाशिंदा नहीं मानते तभी तो इसे गरीबी दिखाने का कुत्सित प्रयास कह रहे हैं,...वरना क्या ग़लत है कि किसी ने बिना चकाचौंध का बड़ा सा सेट लगाए....एक सपनीली फिल्म,...मटमैली बस्ती में फिल्मा ली. इस फिल्म की सफलता में चुभने वाली बात क्या है. संगीत हमारा था,..विशुद्ध हमारा...पूरी दुनिया ने इसे पसंद किया...डिंग-डिंग-डिंगा पर हम ही नहीं झूमे,..सभी के पांव थिरके. जय हो...का मतलब भले कोई देर से समझे पर भाव समझने में किसी को दुविधा नहीं हुई.

बंधु...ये भारत का आकर्षण है,...भारत की जीवनीशक्ति को सलाम है...झेंपिए मत. भारत क्या है...कैसा है...अब इसे नए सिरे से समझाने की ज़रूरत नहीं है...ज़रूरत है तो हमें ख़ुद को जानने की,...जिसके लिए आज भी हमें विदेशी चश्मा लगाना पड़ता है...ये क्या बात हुई...कि जिस बात को लेकर दुनिया ताली बजा रही है...उसी पर हमें शर्म आ रही है.