शनिवार, 27 दिसंबर 2008

देशभक्ति का ज्वार-भाटा...


युद्ध का उन्माद आजकल हरतरफ नज़र आ रहा है. पाकिस्तान ने अपनी पलटन सीमाओं की तरफ भेजनी शुरू की..तो भारत में हलचल मच गई. मीडिया ने इस ख़बर को सर आंखों पर उठा लिया. कहीं दोनों देशों की सैनिक ताक़त की तुलना की जाने लगी...तो कहीं ये बताया जाने लगा कि युद्ध होने पर पाकिस्तान कितने दिन में मिट जाएगा? लोगों को ऐसी ख़बरें भाती हैं...लेकिन बस इतनी सी नहीं...उन्हें सतही जानकारियों के अलावा कुछ और देखने और सुनने को चाहिए..जो फिलहाल नहीं मिल रहा. ख़बरों से गहराई नदारद है. ऐसी पत्र-पत्रिकाओं की भी कमी पड़ गई है जिसमें तथ्यात्मक विवरण प्रकाशित होते हों.

ऐसे में युद्ध की आशंकाओँ की मार्केटिंग हो रही है. एक देश के रूप में हम अपना गौरव-गान चाहे जितना करते हों...बहुत हद तक तल्ख सच्चाई ये है कि आम नागरिकों के ख़ून में देशभक्ति एक मौसमी ज्वार की तरह आता है और भाटे की तरह चला जाता है. इसकी भी कोई तयशुदा मियाद भी नहीं है. ये ज्वार दरअसल आता नहीं है बल्कि लाया जाता है...और ये काम करता है मीडिया. इन दिनों यही हो रहा है.

सेना में हर पद पर लोगों की भारी कमी है. जवान से लेकर अधिकारी तक की किल्लत है. लेकिन इसकी याद तब आएगी जब युद्ध के दौरान हमें खामियाजा भुगतना पड़ेगा. तब लोग ख़ूब चिल्लाएंगे...ऊंची आवाज़ में ये बताने की प्रतिस्पर्द्धा होगी कि हमारे अंदर कहां कमी थी.

आप सभी को याद होगा कि कारगिल युद्ध के दौरान हमारे पास शहीद जवानों के शवों को उनके घर पहुंचाने के लिए बक्से ही नहीं थे. तब आनन-फानन में मुंहमांगी क़ीमत पर रातों-रात इसे इज़रायल से मंगवाया गया. इसको लेकर भी तत्कालीन रक्षामंत्री पर घोटाले के आरोप लगे. सच क्या था भगवान जाने...पर चूक तो साफ नज़र आ गई कि हम आपात स्थितियों के लिए कितना सावधान रहते हैं.

अभी वक़्त है कि हम अपनी कमियों को दुरुस्त कर लें...ये ज़िम्मेदारी अकेले रक्षा मंत्रालय, अधिकारी और नेताओं की नहीं है बल्कि मीडिया की भी उतनी ही है.

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

नासमझ कौन है?


लगातार पांचवें हफ्ते महंगाई की दर गिरावट पर है. इस ख़बर ने मनमोहन सिंह को बड़ी राहत दी होगी. विधानसभा चुनाव के नतीजों की वजह से नींद ऐसे भी अच्छी आ रही थी,...अब और सुकून मिला होगा. .पीएम को पहले डर रहा होगा कि कहीं आम लोग बेलगाम क़ीमतों से प्रभावित होकर कांग्रेस नीत सरकार के ख़िलाफ वोट न डाल दें....लेकिन ये आशंका अब ख़त्म हो गई होगी. अब पीएम मान के चल रहे होंगे कि आम लोगों को उनकी गंभीर कोशिशें भा गईं. लोगों ने ये समझ लिया कि सरकार को जो करना था वो कर रही है...और बहुत कर रही है. उन्हें तो यही लग रहा होगा कि जनता के सोचने का स्तर ऊंचा उठ गया है...वो उनकी बेबसी समझ रही होगी...उसे भी पता है कि ओपेक देश तेल की क़ीमतों को कम करने की गुहार नहीं सुनते...वो अपने लिहाज से काम करते हैं.

हम कोई हवाई क़िले बांधने की कोशिश नहीं कर रहे. बल्कि पीएम और उनके सहयोगियों की कार्यशैली के आधार पर उनकी वर्तमान मन:स्थिति का अंदाज़ा लगा रहे हैं. आप पूछेंगे कि एक व्यक्ति विशेष के मन के बारे में सपाट ढंग से ऐसा कैसे कहा जा सकता है. आपका कहना बिल्कुल ठीक है...इसलिए हमने कहा...ऐसी कोशिश कर रहे हैं.

चलिए मुद्दे पर आते हैं. भारत में शहर हों या गांव,...अगर एक औसत मतदाता की बात करें तो ज़्यादातर को ये पता भी नहीं होगा कि ये महंगाई दर कम कैसे हो रही है. कोई जानने की कोशिश भी नहीं करता...करता है तो भी समझ नहीं पता. अरे भई! जब सारी चीज़ें महंगी हैं तो फिर ये महंगाई की दर नीचे कैसे जा रही है... और अगर दुनिया भर के उतार-चढ़ाव के कारण ऐसा हो रहा है तो हम इसे महंगाई का अपना मीटर क्यों मानें. और ये जो मीटर है...वो भी हफ्ते दो हफ्ते पीछे का होता है....ठीक-ठीक याद रखना भी मुश्किल. मान लीजिए हफ्ते-पखवाड़े भर पहले महंगाई जितनी थी...उसका परिणाम ये महंगाई का मीटर मौजूदा वक़्त में बताता है...तो फिर इसका हिसाब रखने का मतलब क्या है.

अब अगर क्रूड ऑयल के सस्ता होने से भारत में महंगाई की दर गिर गई...तो इसमें सरकार काहे का ढोल पीट रही है. पहले तो सब कह रहे थे...हमारा दोष नहीं है...हम क्या कर सकते हैं....हमारे वश की बात नहीं है...तो फिर अब इसके पीछे सरकार की गंभीर कोशिशों को श्रेय देने की बात कहां से आ गई. ख़तरा ये भी बरक़रार है कि जुलाई के बाद चार महीनों में तिहाई क़ीमत पर आया कच्चे तेल का दाम अगर अगले चार महीनों में फिर ऊपर चढ़ गया तो क्या होगा ?

अब..जनता परिपक्व हो रही है या देश के कर्ता-धर्ता और भी नासमझ....ये बात समझना मुश्किल नहीं.

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

पत्रकारिता के दरबार में सिद्धांतों का चीर-हरण


महाभारत की कहानी सबको याद होगी. युद्धिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता था. इसलिए क्योंकि वो सत्यवादी थे, न्यायप्रिय थे,...उनके चारों अनुज एक से बढ़कर एक थे. कोई महाबलशाली तो कोई धनुर्धर. बावजूद इसके इन पांचों की पत्नियां भरे दरबार में नंगी की जाती रही और वे कुछ नहीं कर सके. इसलिए नहीं कि इन पांडु पुत्रों में क्षमता नहीं थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'धर्मराज' युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाने का फ़ैसला ख़ुद किया था....और वो ठहरे नीतिवान..इसलिए बाज़ी हारने के बाद दु:शासन का विरोध न करने को वो ज़्यादा नीतिसंगत मानते थे. बाक़ी के चारों अनुजों का ख़ून खौल रहा था...लेकिन उन्हें बड़े भाई के हर आदेश का पालन करना द्रौपदी की इज़्ज़त बचाने से ज़्यादा सही लगा. आगे क्या हुआ...सभी जानते हैं...अवतारी कृष्ण न होते तो हस्तिनापुर के दरबार के उस हाल-ए-बयां को लिखने में महर्षि वेदब्यास की उंगलियां भी कांप जातीं...और ये भारत के सभी महाकाव्यों का सबसे शर्मनाक अध्याय होता. धर्म की दृष्टि से...पौरुष की दृष्टि से और न्याय की दृष्टि से भी.

बाद में महाभारत की लड़ाई हुई..और..इसमें जीत हासिल करने के लिए 'धर्मराज' ने झूठ का भी सहारा लिया...तो क्या धर्मराज के विचार परिवर्तित हो गए थे...या उनके 'नीतिसंगत' दृष्टिकोण के मुताबिक़ विशेष अवसरों पर झूठ बोलना सही था. मुझे आज भी ये बात मथती है कि युद्धिष्ठिर ने अपमान की पराकाष्ठा के वक़्त नीति-अनीति पर किस तरह से विचार किया...और किया तो उन्हें धृतराष्ट्र पुत्रों का विरोध सही क्यों नहीं लगा.

महाभारत धारावाहिक में मैंने ये सब देखा था...तब स्कूल में पढ़ता था...चौथी या पांचवीं में था. आज लगभग सत्रह-अठारह साल बाद ये बातें याद आ रही हैं...ये मन को बुरी तरह मथ रही हैं. पत्रकारिता में चार साल से हूं पर पिछले कुछ महीनों के अनुभव जीवन भर याद रहने वाले हैं. सोचने को ये विवश करेंगे.

दिनकर की कविताओं में कहीं पढ़ा था...'हो चाहे जहां अनय..उसको रोको रे...यदि ग़लती करें..शशि-सूर्य उन्हें टोको रे'. इन शब्द-युग्मों का मतलब मुझे पत्रकारिता समझ में आया था. पत्रकारिता से रोटी कमाने का फ़ैसला मेरा अपना था. मुझे लगता था अपने स्वाभाविक गुणों का इस्तेमाल मैं इसके सिवाय कहीं और नहीं कर सकता. लेकिन काम के दौरान हासिल हो रहे अनुभवों से महसूस कर रहा हूं कि पत्रकारिता के लिए जो गुण मुझे स्वाभाविक और बेहद ज़रूरी लगते थे....दरअसल वो इस पेशे में अब अवांछित माने जाने लगे हैं. जैसे हर ग़लत बात का विरोध करना.

महाभारत की पृष्ठभूमि में कहूं तो पत्रकारिता के दरबार में सिद्धांतों का चीर-हरण हो रहा है...और धर्मराज (वरिष्ठ पत्रकार) उसी तरह सर झुकाए बैठे हैं...उनके अनुजों की राह भी पुरानी है. महाबलशाली,...धनुर्धर..कुरूपुत्रों को सबक़ सिखाने की क्षमता रखने वाले अनुजों के कथानक बदले नहीं हैं. वे हर आदेश बजाने को तैयार हैं..सब कुछ सहने को तैयार हैं. धर्मराज युद्धिष्ठिर ने ये सब नीति के पालन के नाम पर किया था और करवाया था...वर्तमान में ये प्रोफेशनलिज़्म के नाम पर किया जा रहा है. उदाहरण गिनाने से क्या होगा. बस पात्र बदल जाएंगे...सब जगहों की कहानी तो यही है. सोच रहा हूं...लोग पत्रकार क्यों बनते हैं...अगर मक़सद रसूख़ हासिल करना होता है तो तलवार की जगह कलम को क्यों चुनते हैं...अगर चुनते हैं तो फिर लड़ते क्यों नहीं..हथियार क्यों डाल देते हैं.

स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर सच कहने पर पूरी दुनिया भी ख़िलाफ हो जाय तो मत झुको. तन कर खड़े रहो. सामना करो. पहले उपेक्षा,..फिर अनुसरण,..आगे प्रशंसा..अंत में तुम्हें स्वीकृति मिलेगी. हमारे अग्रज ये राह अपनाने की शुरूआत करें तो स्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी. कलयुग है...द्वापर की तरह कोई कृष्ण तो आने से रहे....इसलिए दांव पर लगाने के बाद भी द्रौपदी की इज़्ज़त हमें ही बचानी होगी. बाद में कुरूक्षेत्र की लड़ाई जीतने के लिए झूठ तो बोलना ही पड़ेगा...इसलिए धर्मराज के आदेश का इंतज़ार नहीं करिए...अर्जुन!,भीम!,नकुल!,सहदेव!...सुन रहे हैं ना..उठिए! अब बहुत देर हो गई है.

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

ये ख़बर थी कुछ अलग...


ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई
रात से सुबह हुई,....शाम यूं ही ढल गई
फिर अल्लसुबह से रात तक ..
कुछ नहीं बदल सका
धुएं की धुंध बीच का
मंज़र रहा दबा-दबा..
इस शहर की बानगी...अबके गांव तक पहुंच गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई

यूं जो छोड़ के चले,
हाथ जोड़ के चले
होठ बंद थे मगर,
बिन कहे भी कह चले
जी सको तो इस तरह,..मर सको तो इस तरह
मेरी तो आज ज़िंदगी,..मौत से संवर गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई