शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
आरएसएस ने बीजेपी को रामभरोसे छोड़ा!
बीजेपी में मचे बवंडर को लेकर सबकी निगाहें आरएसएस पर टिकी हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की बहुप्रतीक्षित प्रेसवार्ता पर सबकी नज़र है. लेकिन अगर संघ के अब तक के सफ़र को देखें तो कहीं से नहीं लगता कि मोहन भागवत कुछ भी ऐसा कहेंगे जिससे बीजेपी और संघ के रिश्तों को लेकर कोई नई चर्चा शुरू होगी. संघ की तरफ से साफ तौर पर यही कहा जाएगा कि बीजेपी एक राजनीतिक संगठन है और संघ इसके आंतरिक मामलों में कोई दख़ल नहीं देगा. अगर सवाल बीजेपी को संभालने को लेकर उठेगा...तो कहा जाएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के स्वर उठते रहते हैं और इसमें कुछ भी नया नहीं है और पार्टी नेतृत्व इस संकट से उबरने में पूरी तरह सक्षम है. ये संघ का पुराना ढर्रा है. सभी जानते हैं कि बीजेपी,..संघ के विचारों को राजनीति के क्षेत्र में आम लोगों तक पहुंचाने का काम करती है...और इसका पूरा संगठन संघ के फॉर्मूले पर काम करता है. सालों से इस बात को लेकर मीडिया में ख़बरे छपती रही हैं..कि बीजेपी संघ के इशारों पर काम करती है. इसमें बहुत हद तक सच्चाई भी है....इसके उलट सच्चाई संघ की उन बातों में भी है....जिसके मुताबिक़ बीजेपी पूरी तरह से एक स्वतंत्र राजनीतिक दल है...लेकिन मौजूदा दौर में ये बातें अब पुरानी सी नज़र आ रही हैं. उस दौर में ये बात सही लगती थी,..जब वाजपेयी और आडवाणी जैसे नेताओं के कुशल नेतृत्व में पार्टी नेता अनुशासन के दायरे में रहा करते थे...विरोध के स्वर उठते थे..लेकिन वो संयमित हुआ करते थे. लेकिन बदले हुए वक्त में जब सत्ता का कई साल स्वाद चखने के बाद पार्टी नेताओं के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है...ऐसे में संघ का सहारा बेहद ज़रूरी लग रहा है. बीजेपी की विचारधारा बुनियादी स्तर पर भले ही पुरानी हो..लेकिन पार्टी नेताओं के आचार-व्यवहार में ज़मीन-आसमान का फर्क आ गया है. ऐसे में संघ को भी लगता है कि संक्रमण के इस काल में कुछ न कुछ करना ज़रूरी है...लेकिन डर इस बात का भी है...कि खुलकर इस बात को क़बूलने के बाद उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करेगा...और सभी इस बात को समझ जाएंगे कि संघ और बीजेपी में बस नाम भर का ही अंतर है. ज़ाहिर है ऐसे में अंदरुनी तौर पर चाहे जो हो...बाहरी तौर पर सरसंघचालक बीजेपी को लेकर सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कहेंगे. ये लगभग तय है.
रविवार, 10 मई 2009
राजनीति में दोस्त कौन ?
25 सालों तक साथ-साथ चले मुलायम सिंह यादव और आज़म ख़ान के रास्ते अब अलग होते नज़र आ रहे हैं. मुलायम समाजवादी पार्टी के मुखिया हैं और आज़म इसके आला नेताओं में एक. इन आला नेताओं में अमर सिंह भी शामिल हैं. अमर और आज़म दोनों पार्टी के महासचिव हैं....लेकिन दोनों की हैसियत में ज़मीन आसमान का अंतर है. इतने दिन तक आज़म अपने गुस्से का इजहार करते रहे लेकिन मुलायम चुप रहे लेकिन ज्योंही अमर ने कोई बड़ा फ़ैसला करने की धमकी दी. तो मुलायम ने आज़म पर बरसने में तनिक भी देर नहीं की.
ये राजनीति की ऐसी धारा है जिसके ख़िलाफ जाने की हिम्मत गिने चुने नेताओं में भी नज़र नहीं आती. अमर सिंह को मुलायम इतने दिनों तक साथ ढोते रहे तो आज़म को कोई आपत्ति नहीं थी कि लेकिन जब अमर आज़म के घर में ही उनके पर कतरते नज़र आए...तो टकराव लाजिमी था. दरअसल आज़म अब तक जयाप्रदा के बहाने अमर को लेकर ही अपनी नाराज़गी को ज़ाहिर करते रहे. ये बात सभी समझ रहे थे...लेकिन बोलता कोई नहीं था. अब सबकुछ सामने आ चुका है. कहने-सुनने की भी सूरत नहीं बची है.
अमर पाक साफ नहीं तो आज़म भी दूध के धुले नहीं हैं...लेकिन जब मुलायम से जी भर खरी-खोटी सुनने के बाद आज़म ख़ान ने अपनी बात रखने की कोशिश की गला भर आया. वे 25 साल की दोस्ती की बात दुहराते नज़र आए. उन्होंने लाख नाराज़गी के बाद भी सार्वजनिक रुप से मुलायम को बुरा नहीं कहा. यही वो वजह थी कि आज़म का मन भारी था.
मुलायम की बस चलती तो अमर सिंह के दबाव में उन्होंने आज़म ख़ान को कब का बाहर का रास्ता दिखा दिया होता. ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि आज़म एक बड़े मुस्लिम नेता भी हैं. यानी दोस्ती...विचारधारा...इन सब बातों की मजबूरी नहीं थी...लाचारी थी तो वोटबैंक की.
दरअसल ये राजनीति का चेहरा बन चुका है. कहीं अमर हैं तो कहीं कोई और है. ऐसे लोग तो हर जगह हैं. अमर सिंह जैसा दोस्त मिलने पर बाक़ी दूसरों की क्या ज़रूरत. आज़म शायद इस बात का ख़्याल नहीं रख पाए...इसलिए अपना गुस्सा खुलकर ज़ाहिर करते रहे. वरना चुप रहने के सिवा दूसरा रास्ता पहले ही कहां था.
..तो क्या जनादेश बेमतलब है?
चुनावी नतीजे अभी नहीं आए हैं लेकिन सरकार बनाने की जोड़-तोड़ शुरू है. जनता किस दल के पक्ष में और किसके विरोध में अपने नतीजे सुनाएगी…ये भविष्य के गर्भ में है लेकिन नेताओं को क़रार नहीं. बड़बोलेपन पर लगाम लग चुकी है. सबकी आवाज़ मुलायम हो गई है ताकि आगे ज़्यादा बेशर्मी न दिखानी पड़े.
लड़ाई के मैदान में जंग जीतने या हारने की बात होती है लेकिन यहां तो मैदान में ही सुलह की बात हो रही है. सत्ता सबसे ऊंची चीज़ हो गई है...विचारधारा का बखान करने वाले दलों की प्रतिबद्धता बस एक शब्द के आस-पास सिमट कर रह जाती है...कहीं वो धर्मनिरपेक्षता है तो कहीं तुष्टिकरण. ये जो कुछ भी हो लेकिन सही मायने में लोकतांत्रिक चलन नहीं माना जा सकता.
किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वो जिन विचारों में विश्वास रखता है...उसके आधार पर हासिल की गई सफलता से ही संतुष्ट हो. यहां झुकने की बात तो छोड़िए लोग कुछ भी करने को तैयार दिखते हैं. कहीं कोई दूसरे पर दबाव बनाने के लिए तीसरे का नाम ले रहा है...तो कोई नए शब्दों को गढ़ने में लगा है.
लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति यही कहेगा कि ये जनादेश का सम्मान नहीं है. अगर हम मतदाताओं की इच्छा का सम्मान करते हैं तो फिर उसके फैसले को भी सर माथे पर रखना चाहिए. जीतने के बाद सरकार बनाने की बात या इसके लिए कोशिश का मतलब तो समझा जा सकता है...लेकिन इससे पहले ही सरकार में अपना बर्थ सुनिश्चित करने की गारंटी को क्या कहेंगे. लेकिन हम सब यही होता हुआ देख रहे हैं.
कहा जा सकता है कि राजनीति में जनता की राय की कोई अहमियत नहीं रह गई है. नेता चाहें तो उसकी ना,...को हां में आसानी से बदला जा सकता है. इसे तय मानिए.
शनिवार, 21 मार्च 2009
संघ की नई कमान
मोहनराव भागवत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरसंघचालक मनोनीत किया गया है. कुप्पाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन के दायित्व छोड़ने की घोषणा के साथ ही भागवत दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक संगठन के मुखिया बन गए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बाक़ी संगठनों से एक मायने में बिल्कुल अलग है...और वो है अपनी विचारधारा के प्रति समर्पण.
सन् 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में इसकी स्थापना हुई थी...तब से अब तक 80 साल से ज़्यादा ग़ुज़र चुके हैं...लेकिन समय के साथ उसकी विचारधारा नहीं बदली. यहां तक की गिनती के परिवर्तनों को छोड़ दें तो संघ का गणवेश भी तकरीबन वही रहा...जो 1925 में था। कई लोगों को ये देखकर आश्चर्य होता है। नई पीढ़ी के युवाओं की बड़ी संख्या संघ से ख़ुद को जोड़ने में इसे एक बाधा की तरह देखती है....बावजूद इसके संघ ने इसमें कोई तब्दीली नहीं की।
सन् 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में इसकी स्थापना हुई थी...तब से अब तक 80 साल से ज़्यादा ग़ुज़र चुके हैं...लेकिन समय के साथ उसकी विचारधारा नहीं बदली. यहां तक की गिनती के परिवर्तनों को छोड़ दें तो संघ का गणवेश भी तकरीबन वही रहा...जो 1925 में था। कई लोगों को ये देखकर आश्चर्य होता है। नई पीढ़ी के युवाओं की बड़ी संख्या संघ से ख़ुद को जोड़ने में इसे एक बाधा की तरह देखती है....बावजूद इसके संघ ने इसमें कोई तब्दीली नहीं की।
भागवत की छवि की बात करें तो वह उदारवादी रही है. उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में संघ के प्रचारक के रूप में विभिन्न ज़िम्मेदारियों को निभाया. कोलकाता और पटना में भी वे काफी समय रहे. सरकार्यवाह बनाए जाने के बाद पटना में अपने अभिनंदन समारोह में उन्होंने विवेकानंद की पंक्तियों को उद्धृत किया था....”शक्तिशाली भारत का विचार करने पर हमारे सामने जिस देश की परिकल्पना उभरती है...उसके मुताबिक़ भारत का शरीर इस्लाम का होना चाहिए जबकि हृदय हिंदू.”
संघ के मुसलमानों के प्रति प्रचलित दृष्टिकोण से ये बात काफी अलग दिखती है. शरीर और हृदय की उपयोगिता को लेकर बहस-मुबाहिसे की पूरी गुंजाइश है लेकिन इससे एक बात साफ हो जाती है कि वैचारिक रूप से मुसलमानों को संघ अवांछित नहीं मानता।
संघ की शाखाओं की गिरती संख्या को क़ाबू में करना भागवत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। विभिन्न सामाजिक कार्यक्षेत्रों में संघ परिवार के संगठनों ने अच्छी-ख़ासी प्रगति की है...लेकिन जिस शाखा के माध्यम से संघ अपने परिचय का दायरा हर दिन बढ़ाता रहा है...उसकी संख्या तेज़ी से घटी है। इसको लेकर आरएसएस के भीतर हलचल है. शाखा संघ के विस्तार का आधार रही हैं...और इसकी अनदेखी किसी तरह से नहीं की जा सकती।
संघ किसी अकेले व्यक्ति के इशारे पर नहीं चलता है इसलिए इसकी संभावना न के बराबर है कि भागवत के आने से संघ के वैचारिक स्वरूप या उसके तेवर पर कोई फर्क पड़ेगा…लेकिन कोई भी संगठन अपने नेतृत्व से अप्रभावित नहीं रहता. इस लिहाज से भागवत सबकी नज़रों में रहेंगे.
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
साध्वी का समर्पण !
राष्ट्रीय राजनीति में समान विचारधारा का हवाला देकर उमा भारती ने आडवाणी के समर्थन का ऐलान किया है. ये कुछ उसी तरह है कि दुश्मन से मुक़ाबले में हारने की सूरत में अहिंसा का दामन पकड़ लिया जाय. वरना क्या मुश्किल थी कि वो इस बार भी अपनी ताक़त पर मैदान में उतरतीं. लगता है पार्टी की एक और क़रारी हार की आशंकाओं की वजह से उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा.
भाजपा से अलग होने के बाद उमा ने अब तक चैन की सांस नहीं ली है. तमाम मेहनत के बाद भी वो न तो अपनी भारतीय जनशक्ति पार्टी को मध्यप्रदेश में एक विकल्प के रूप में खड़ा कर पाईं और न ही राष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थान सुरक्षित करने में क़ामयाब रहीं. भाजपा से उमा को जो पहचान मिली थी वो भी अब धुंधली पड़ती जा रही है. नई पार्टी बनाना तो उमा को आसान लगा था लेकिन अब इसे चलाना मुश्किल हो रहा है.
हिंदुत्व की लीक पर चलकर राजनीतिक क़ामयाबी हासिल करने की डगर उन्हें कठिन लग रही है. दूसरे रास्ते पर वो जाना नहीं चाहतीं...क्योंकि इसके बाद रही सही लोकप्रियता भी ख़त्म होने का ख़तरा है. ऐसे में साध्वी के सामने गिने-चुने विकल्प बचे थे और उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के समर्थन की घोषणा कर डाली. अब उनके इस ऐलान के अंदरखाने का सच क्या है...उसके लिए कुछ और इंतज़ार करना होगा. लेकिन इतना तो साफ है कि साध्वी अब समर्पण की राह पर हैं.
भाजपा से अलग होने के बाद उमा ने अब तक चैन की सांस नहीं ली है. तमाम मेहनत के बाद भी वो न तो अपनी भारतीय जनशक्ति पार्टी को मध्यप्रदेश में एक विकल्प के रूप में खड़ा कर पाईं और न ही राष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थान सुरक्षित करने में क़ामयाब रहीं. भाजपा से उमा को जो पहचान मिली थी वो भी अब धुंधली पड़ती जा रही है. नई पार्टी बनाना तो उमा को आसान लगा था लेकिन अब इसे चलाना मुश्किल हो रहा है.
हिंदुत्व की लीक पर चलकर राजनीतिक क़ामयाबी हासिल करने की डगर उन्हें कठिन लग रही है. दूसरे रास्ते पर वो जाना नहीं चाहतीं...क्योंकि इसके बाद रही सही लोकप्रियता भी ख़त्म होने का ख़तरा है. ऐसे में साध्वी के सामने गिने-चुने विकल्प बचे थे और उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के समर्थन की घोषणा कर डाली. अब उनके इस ऐलान के अंदरखाने का सच क्या है...उसके लिए कुछ और इंतज़ार करना होगा. लेकिन इतना तो साफ है कि साध्वी अब समर्पण की राह पर हैं.
सोमवार, 9 मार्च 2009
जुग जिए से खेले फिर होली...होली है...
होली आ चुकी है...पर हुड़दंग नदारद है. दिल्ली में बिन हुड़दंग के होली देख तो सकता हूं,...पर महसूस करना मुश्किल है. अपने कमरे और फ्लैट तक सिमटी दुनिया में एक दिन की छुट्टी की ख़ुशी..होली की मस्ती पर भारी पड़ती है. इससे ज़्यादा चाह किसी की नहीं. वरना होली क्या...दीवाली क्या. जेब में बस पैसे रहने चाहिए. लेकिन गांवों में होली खेलने से बड़ी ख़ुशी दूसरी नहीं होती...इसे साल का सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाता है. हर ज़ुबान से सुनेंगे...जुग जिए से खेले फिर होली...होली है. मतलब ये कि ज़िंदगी सलामत रही तभी होली दोबारा खेलेंगे...इसलिए जी-भर की मस्ती आज ही होनी चाहिए।
दोपहरी में हाइवे किनारे गिरे पलाश के फूलों को देखकर एकबारगी याद आई इसकी अहमियत. स्कूलों में सुना था पलाश के फूलों से रंग बनाए जाते हैं. पर यहां पलाश को कोई पूछने वाला नहीं. इसके फूल टायरों तले कुचलते चले जाते हैं...कोलतार की सड़क पर इन फूलों के बीच पड़ा बीज अपना अस्तित्व खो देता है..नए पलाश की कोई आस नहीं बचती।
ठीक इसी तरह ज़िंदगी की रफ्तार में हमें याद नही रहता कि अपनी विरासत को हम किस तरह भूलते जा रहे हैं...जिस मस्ती पर लगाम हमारे लिए बर्दाश्त से बाहर थी...घर के बड़े के ख़िलाफ बालमन विद्रोह कर बैठता था...आज बड़े होने पर उसे भूल जाना ही हम बेहतर समझते हैं. यही वजह है कि हमारी नई पीढ़ी को उसकी पहचान पता नहीं।
दिल्ली में आज अगर पुरबिया होली नहीं दिख रही...तो दोष किसका है? दरअसल हमने ही तो अपने बच्चों को जड़ों से दूर रखा...हाल ये हुआ कि भरे-पूरे घर में तमाम लोग ख़ुश होते हैं...लेकिन फ्लैट की खिड़की से बाहर झांककर हमारी सूनी आंखें अपने लिए ख़ुशी ढूंढ़ती रहती हैं...होली फिर आ गई है...पर होली खेलने का मतलब हमसे दूर हो गया है।
लेकिन....गांवों में ऐसा नहीं है...पछिया बयार चाहे जितनी बह रही हो...लेकिन संस्कार,..सलूक और ठेठ देसी अंदाज़ को मुरझाना इसके बस की बात नहीं. बाहर में यही अखरता है. कुछ भी पा लें आप...गांव तो गांव ही है...वो दूर ही रहेगा. चलिए एक दिन के लिए ही सही...उसकी याद की जाय...और मौक़ा तलाशा जाय अबकि छुट्टी में जड़ों की तलाश का.
दोपहरी में हाइवे किनारे गिरे पलाश के फूलों को देखकर एकबारगी याद आई इसकी अहमियत. स्कूलों में सुना था पलाश के फूलों से रंग बनाए जाते हैं. पर यहां पलाश को कोई पूछने वाला नहीं. इसके फूल टायरों तले कुचलते चले जाते हैं...कोलतार की सड़क पर इन फूलों के बीच पड़ा बीज अपना अस्तित्व खो देता है..नए पलाश की कोई आस नहीं बचती।
ठीक इसी तरह ज़िंदगी की रफ्तार में हमें याद नही रहता कि अपनी विरासत को हम किस तरह भूलते जा रहे हैं...जिस मस्ती पर लगाम हमारे लिए बर्दाश्त से बाहर थी...घर के बड़े के ख़िलाफ बालमन विद्रोह कर बैठता था...आज बड़े होने पर उसे भूल जाना ही हम बेहतर समझते हैं. यही वजह है कि हमारी नई पीढ़ी को उसकी पहचान पता नहीं।
दिल्ली में आज अगर पुरबिया होली नहीं दिख रही...तो दोष किसका है? दरअसल हमने ही तो अपने बच्चों को जड़ों से दूर रखा...हाल ये हुआ कि भरे-पूरे घर में तमाम लोग ख़ुश होते हैं...लेकिन फ्लैट की खिड़की से बाहर झांककर हमारी सूनी आंखें अपने लिए ख़ुशी ढूंढ़ती रहती हैं...होली फिर आ गई है...पर होली खेलने का मतलब हमसे दूर हो गया है।
लेकिन....गांवों में ऐसा नहीं है...पछिया बयार चाहे जितनी बह रही हो...लेकिन संस्कार,..सलूक और ठेठ देसी अंदाज़ को मुरझाना इसके बस की बात नहीं. बाहर में यही अखरता है. कुछ भी पा लें आप...गांव तो गांव ही है...वो दूर ही रहेगा. चलिए एक दिन के लिए ही सही...उसकी याद की जाय...और मौक़ा तलाशा जाय अबकि छुट्टी में जड़ों की तलाश का.
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
रास्ते और भी हैं
मंदी ने निजी क्षेत्र को सबसे ज़्यादा चोट पहुंचाई है. इसकी मार की वजह से नौकरियों पर तलवार लटकनी स्वाभाविक है,...लेकिन मंदी के बहाने अधिकांश जगहों पर प्रबंधन अपनी गोटी लाल कर रहा है. श्रमशक्ति के इस्तेमाल के लिहाज से हर कंपनी की व्यवस्था सटीक नहीं होती..ऐसे में मौजूदा दौर उनके लिए कई मुश्किलों के साथ बेहतरीन अवसर भी लेकर आया है...हमारा इशारा छंटनी की तरफ है. कई बड़ी कंपनियों ने जिस तरह अपने सालों पुराने कुशल कामगारों को बाइज्जत विदा किया ,..उससे ये बात साबित होती है.
आप लायक हैं,...हमारे विकास में आपके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. लेकिन हम लाचार हैं...मजबूर हैं....कोई और रास्ता नहीं..और आख़िरी शब्द-युग्म....”आपको जाना ही होगा.”
नौकरी ख़त्म होना अंतिम बात नहीं होती...इससे आगे उम्मीदें,..आशाएं,...सपने...ऐसी कई बातें हैं जिन पर आघात होता है. ये सवाल अब सोचने को विवश कर रहा है कि क्या मुश्किल के इस वक़्त में नौकरियों को ख़त्म करना ही अकेला रास्ता बचा है. सच तो ये है कि अगर वाक़ई किसी कंपनी पर मंदी का सीधा असर है...तो वो अपने कर्मचारियों को नुक़सान के लिहाज से वेतन में कटौती के लिए विश्वास में ले सकती है.
अगर सच्चाई के साथ प्रबंधन पूरी तस्वीर कर्मचारियों के सामने रखे...तो अपने दोस्तों को नौकरी से हटाने की जगह ज़्यादातर लोग मुश्किल वक्त साथ-साथ बिताना पसंद करेंगे. वे इस बात से शायद ही पीछे हटेंगे कि उनके वेतन में ज़रूरी कांट-छांट हो जाय लेकिन किसी की नौकरी न जाय. कई कंपनियों में ऐसा हुआ भी है...लोग हालात को समझते हैं और ज़िद की कोई वजह नहीं है. लेकिन बिना ठोस वजह के मंदी का बहाना बनाना सही नहीं है.
आप लायक हैं,...हमारे विकास में आपके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. लेकिन हम लाचार हैं...मजबूर हैं....कोई और रास्ता नहीं..और आख़िरी शब्द-युग्म....”आपको जाना ही होगा.”
नौकरी ख़त्म होना अंतिम बात नहीं होती...इससे आगे उम्मीदें,..आशाएं,...सपने...ऐसी कई बातें हैं जिन पर आघात होता है. ये सवाल अब सोचने को विवश कर रहा है कि क्या मुश्किल के इस वक़्त में नौकरियों को ख़त्म करना ही अकेला रास्ता बचा है. सच तो ये है कि अगर वाक़ई किसी कंपनी पर मंदी का सीधा असर है...तो वो अपने कर्मचारियों को नुक़सान के लिहाज से वेतन में कटौती के लिए विश्वास में ले सकती है.
अगर सच्चाई के साथ प्रबंधन पूरी तस्वीर कर्मचारियों के सामने रखे...तो अपने दोस्तों को नौकरी से हटाने की जगह ज़्यादातर लोग मुश्किल वक्त साथ-साथ बिताना पसंद करेंगे. वे इस बात से शायद ही पीछे हटेंगे कि उनके वेतन में ज़रूरी कांट-छांट हो जाय लेकिन किसी की नौकरी न जाय. कई कंपनियों में ऐसा हुआ भी है...लोग हालात को समझते हैं और ज़िद की कोई वजह नहीं है. लेकिन बिना ठोस वजह के मंदी का बहाना बनाना सही नहीं है.
इसमें शर्म की क्या बात है?
स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर कई बातें हो रही हैं. ज्यादातर लोग यही कह रहे हैं कि ये भारत की गरीबी को दिखाने वाली फिल्म है. उनके मुताबिक हिन्दुस्तान के अंधेरे कोने पर ही फिल्मकार का कैमरा केंद्रित रहा है. ये कहना कुछ अजीब सा लगता है कि स्लमडॉग मिलेनियर इस वजह से सफल हुई कि उसमें भारत की गरीबी दिखती है.
इस फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई थी,...एक के बाद एक संयोग का ख़ूबसूरत फिल्मांकन,...और इससे आगे आपस में उलझने की बजाय सुलझते जाते कथा-तंतु। स्लमडॉग के आगे बढ़ने की कहानी में भारत के सभी शेड हैं. मुश्किल बस इतनी है कि भारत को किसी विदेशी फिल्मकार ने बड़े ही क़रीब से समझने की कोशिश की है...ये प्रयास क़ामयाब रहा है. यही वो वजह है कि हमारे कई दोस्तों को ये बातें चुभ रही हैं. मुगालते में जीने की बात तो हम में है...वरना फिल्म में बुरा क्या है. कोई ये तो बताए कि डैनी बॉयल ने हक़ीक़त से उलट क्या बातें फिल्म में दिखलाई हैं. पूरी सच्चाई सैल्युलाइड पर नहीं उतर सकती. लेकिन जितनी उतर सकती है उनमें से कई स्लमडॉग में हू-ब-हू नज़र आई है. भुलावे और छलावे में वक्त गुज़ारने की आदत हमारी है.
बॉलीवुड में कितनी फ़िल्में बन रही हैं जिसमें ग्रामीण भारत,...झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाला भारत,..अपने हाल पर जीने को मजबूर,...जीने के लिए हर समझौता करने को तैयार लाचार भारत की कहानी दिखती है....गिनती की फिल्मों को छोड़कर कहां देख पाए हैं हम..अपना देश...अपनी धरती....धरती-पुत्रों की कहानी...युवाओं का संघर्ष, बेरोज़गारी की व्यथा, भ्रूण हत्या...शेयर बाज़ार की लूट. सपना तो ये सब है,...हमें डर लगता है कि कहीं कोई हमारा चेहरा न देख ले...ये डर क्यों है?,…हम छुपाना चाहते हैं दुनिया से अपनी हक़ीक़त. नहीं जताना चाहते कि हम क्या हैं. दरअसल हम चमक रहे हैं इसलिए अपना देश भी हमें चमकता हुआ नज़र आता है.
हम झुग्गियों में रहने वाले लोगों को अपने देश का बाशिंदा नहीं मानते तभी तो इसे गरीबी दिखाने का कुत्सित प्रयास कह रहे हैं,...वरना क्या ग़लत है कि किसी ने बिना चकाचौंध का बड़ा सा सेट लगाए....एक सपनीली फिल्म,...मटमैली बस्ती में फिल्मा ली. इस फिल्म की सफलता में चुभने वाली बात क्या है. संगीत हमारा था,..विशुद्ध हमारा...पूरी दुनिया ने इसे पसंद किया...डिंग-डिंग-डिंगा पर हम ही नहीं झूमे,..सभी के पांव थिरके. जय हो...का मतलब भले कोई देर से समझे पर भाव समझने में किसी को दुविधा नहीं हुई.
बंधु...ये भारत का आकर्षण है,...भारत की जीवनीशक्ति को सलाम है...झेंपिए मत. भारत क्या है...कैसा है...अब इसे नए सिरे से समझाने की ज़रूरत नहीं है...ज़रूरत है तो हमें ख़ुद को जानने की,...जिसके लिए आज भी हमें विदेशी चश्मा लगाना पड़ता है...ये क्या बात हुई...कि जिस बात को लेकर दुनिया ताली बजा रही है...उसी पर हमें शर्म आ रही है.
इस फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई थी,...एक के बाद एक संयोग का ख़ूबसूरत फिल्मांकन,...और इससे आगे आपस में उलझने की बजाय सुलझते जाते कथा-तंतु। स्लमडॉग के आगे बढ़ने की कहानी में भारत के सभी शेड हैं. मुश्किल बस इतनी है कि भारत को किसी विदेशी फिल्मकार ने बड़े ही क़रीब से समझने की कोशिश की है...ये प्रयास क़ामयाब रहा है. यही वो वजह है कि हमारे कई दोस्तों को ये बातें चुभ रही हैं. मुगालते में जीने की बात तो हम में है...वरना फिल्म में बुरा क्या है. कोई ये तो बताए कि डैनी बॉयल ने हक़ीक़त से उलट क्या बातें फिल्म में दिखलाई हैं. पूरी सच्चाई सैल्युलाइड पर नहीं उतर सकती. लेकिन जितनी उतर सकती है उनमें से कई स्लमडॉग में हू-ब-हू नज़र आई है. भुलावे और छलावे में वक्त गुज़ारने की आदत हमारी है.
बॉलीवुड में कितनी फ़िल्में बन रही हैं जिसमें ग्रामीण भारत,...झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाला भारत,..अपने हाल पर जीने को मजबूर,...जीने के लिए हर समझौता करने को तैयार लाचार भारत की कहानी दिखती है....गिनती की फिल्मों को छोड़कर कहां देख पाए हैं हम..अपना देश...अपनी धरती....धरती-पुत्रों की कहानी...युवाओं का संघर्ष, बेरोज़गारी की व्यथा, भ्रूण हत्या...शेयर बाज़ार की लूट. सपना तो ये सब है,...हमें डर लगता है कि कहीं कोई हमारा चेहरा न देख ले...ये डर क्यों है?,…हम छुपाना चाहते हैं दुनिया से अपनी हक़ीक़त. नहीं जताना चाहते कि हम क्या हैं. दरअसल हम चमक रहे हैं इसलिए अपना देश भी हमें चमकता हुआ नज़र आता है.
हम झुग्गियों में रहने वाले लोगों को अपने देश का बाशिंदा नहीं मानते तभी तो इसे गरीबी दिखाने का कुत्सित प्रयास कह रहे हैं,...वरना क्या ग़लत है कि किसी ने बिना चकाचौंध का बड़ा सा सेट लगाए....एक सपनीली फिल्म,...मटमैली बस्ती में फिल्मा ली. इस फिल्म की सफलता में चुभने वाली बात क्या है. संगीत हमारा था,..विशुद्ध हमारा...पूरी दुनिया ने इसे पसंद किया...डिंग-डिंग-डिंगा पर हम ही नहीं झूमे,..सभी के पांव थिरके. जय हो...का मतलब भले कोई देर से समझे पर भाव समझने में किसी को दुविधा नहीं हुई.
बंधु...ये भारत का आकर्षण है,...भारत की जीवनीशक्ति को सलाम है...झेंपिए मत. भारत क्या है...कैसा है...अब इसे नए सिरे से समझाने की ज़रूरत नहीं है...ज़रूरत है तो हमें ख़ुद को जानने की,...जिसके लिए आज भी हमें विदेशी चश्मा लगाना पड़ता है...ये क्या बात हुई...कि जिस बात को लेकर दुनिया ताली बजा रही है...उसी पर हमें शर्म आ रही है.
शनिवार, 17 जनवरी 2009
मैं तो टल्ली हो गया!
34वें राष्ट्रीय खेलों के आयोजन को चौथी बार टाल दिया गया है. झारखंड को जब राष्ट्रीय खेलों की मेज़बानी मिली थी तो राज्य सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि बताया था...लेकिन इस उपलब्धि का ‘बोझ‘ ढोने में वो नाकाम रही. राज्य में राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिहाज से आधारभूत संरचना का अभाव था. इसको लेकर लंबी-चौड़ी योजनाएं बनीं. स्टेडियम से लेकर खेलगांव के निर्माण के लिए देश भर से टेंडर मंगवाए गए. लेकिन कागज़ की बजाय ज़मीन पर काम तेज़ी से नहीं हुआ. राज्य की राजनीतिक अस्थिरता भी इसके पीछे एक प्रमुख वजह रही.
इन खेलों का आयोजन सबसे पहले नवंबर 2007 में टला,...दूसरी बार पर्याप्त तैयारी नहीं होने की वजह से इसे मार्च 2008में टाला गया...लेकिन इस बार भी तैयारियों के लिहाज से तय तारीख़ पर आयोजन संभव नहीं हुआ.तीसरी बार आयोजन की दिसंबर में तय तारीख़ भी टालनी पड़ी. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अधिकारियों ने तय वक़्त पर खेलों का आयोजन नहीं होने पर जुर्माने की चेतावनी दी थी. लेकिन इसका कुछ असर नहीं हुआ. यही वजह है कि 15 से 26 फरवरी के बीच खेलों के आयोजन की तय तारीख़ को एक बार फिर टाल दिया गया है...अब इस बात की संभावना है कि खेल जून में होंगे...लेकिन पक्के तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है.
इस बीच ज़रा उन खिलाड़ियों के बारे में सोचिए जिन्होंने एक-एक दिन के हिसाब से अपनी तैयारियों में लगे हैं. उनके उत्साह पर कितना असर हो रहा होगा...या..यूं कहें इन खेलों में भागीदारी को लेकर उनमें उत्साह बाक़ी ही नहीं होगा. 33वें राष्ट्रीय खेल आतंकवाद के साए में हुए थे...इसकी तारीख़ भी टालनी पड़ी थी...आख़िरकार गुवाहाटी में ये सम्पन्न हो गए. लेकिन गुवाहाटी और रांची के बीच बड़ा फर्क है. उल्फा की धमकियों के बीच गुवाहाटी में राष्ट्रीय खेलों का सफल आयोजन हुआ था...इसे सरकार की मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचायक माना गया...लेकिन रांची में बात ठीक उलट है.
इसे सिवाय लापरवाही के कुछ और नहीं माना जा सकता. रही बात ज़िम्मेदारी की तो वो सब के कंधे जाती है. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन जिस तरह ग़लती पर ग़लती किए जाने के बाद भी झारखंड को माफ करता रहा...उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इस वजह से देश की प्रतिष्ठा को भी कम ठेस नहीं पहुंची है. अगर राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कुछ लापरवाह नेताओं और अधिकारियों के भरोसे छोड़ दी जाए...तो इससे बुरी बात और क्या होगी?. दुर्भाग्य से यही हो रहा है.
इन खेलों का आयोजन सबसे पहले नवंबर 2007 में टला,...दूसरी बार पर्याप्त तैयारी नहीं होने की वजह से इसे मार्च 2008में टाला गया...लेकिन इस बार भी तैयारियों के लिहाज से तय तारीख़ पर आयोजन संभव नहीं हुआ.तीसरी बार आयोजन की दिसंबर में तय तारीख़ भी टालनी पड़ी. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अधिकारियों ने तय वक़्त पर खेलों का आयोजन नहीं होने पर जुर्माने की चेतावनी दी थी. लेकिन इसका कुछ असर नहीं हुआ. यही वजह है कि 15 से 26 फरवरी के बीच खेलों के आयोजन की तय तारीख़ को एक बार फिर टाल दिया गया है...अब इस बात की संभावना है कि खेल जून में होंगे...लेकिन पक्के तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है.
इस बीच ज़रा उन खिलाड़ियों के बारे में सोचिए जिन्होंने एक-एक दिन के हिसाब से अपनी तैयारियों में लगे हैं. उनके उत्साह पर कितना असर हो रहा होगा...या..यूं कहें इन खेलों में भागीदारी को लेकर उनमें उत्साह बाक़ी ही नहीं होगा. 33वें राष्ट्रीय खेल आतंकवाद के साए में हुए थे...इसकी तारीख़ भी टालनी पड़ी थी...आख़िरकार गुवाहाटी में ये सम्पन्न हो गए. लेकिन गुवाहाटी और रांची के बीच बड़ा फर्क है. उल्फा की धमकियों के बीच गुवाहाटी में राष्ट्रीय खेलों का सफल आयोजन हुआ था...इसे सरकार की मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचायक माना गया...लेकिन रांची में बात ठीक उलट है.
इसे सिवाय लापरवाही के कुछ और नहीं माना जा सकता. रही बात ज़िम्मेदारी की तो वो सब के कंधे जाती है. भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन जिस तरह ग़लती पर ग़लती किए जाने के बाद भी झारखंड को माफ करता रहा...उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इस वजह से देश की प्रतिष्ठा को भी कम ठेस नहीं पहुंची है. अगर राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कुछ लापरवाह नेताओं और अधिकारियों के भरोसे छोड़ दी जाए...तो इससे बुरी बात और क्या होगी?. दुर्भाग्य से यही हो रहा है.
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
द्रोणाचार्य का ये हाल!
ओलंपिक के दौरान हर सुबह अख़बारों में छपी पदक-तालिका को लोग बड़ी उत्सुकता से देखते हैं. लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती है. तब और भी कोफ्त होती है जब युगांडा और इथोपिया जैसे देश हमसे काफी आगे नज़र आते हैं. इसके पीछे की वजह को दुहराने की ज़रूरत नहीं. लेकिन ताज़ा कहानी सुनकर आप चौंक जाएंगे....अख़बारों में ये पढ़कर हैरत हुई कि तीरंदाज़ी के राष्ट्रीय कोच लिम्बा राम के पास सर ढंकने तक की जगह नहीं है. जयपुर में रहने वाले लिम्बा का ठिकाना फिलहाल एक विधायक के सरकारी निवास का गैरेज है.
उदयपुर ज़िले के एक गांव में जन्मे लिंबा अहरी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं...जंगली इलाक़ों से शुरूआत कर तीरंदाज़ी के ज़रिए उन्होंने ओलंपिक का सफर तय किया. तीरंदाज़ी में देश का नाम रोशन करने पर उन्हें १९९१ में अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया. लेकिन कहानी ये नहीं है,...दरअसल लिम्बा राम ने अब तक शादी नहीं की है,....इसके पीछे की वजह बिल्कुल अलग है. उन्हें नहीं लगता था कि आर्थिक रूप से वे परिवार का बोझ उठाने में सक्षम हैं. आज भी उन्हें यही लगता है...
तब जबकि वे तीरंदाज़ी के राष्ट्रीय कोच हैं. उनकी तनख्वाह बस इतनी है कि किसी तरह अपना ग़ुज़ारा हो जाय. १९९२ के बार्सिलोना ओलंपिक में वे कांस्य पदक से मामूली अंतर से चूक गए थे. उनके नाम विश्व रिकॉर्ड भी रहा है. ओलंपिक में तीन बार देश का प्रतिनिधित्व करने वाले इस द्रोणाचार्य का हाल सुनकर आपकी आंखें गीली हुए बिना नहीं रहेंगी. खेल के मैदान में हासिल उनकी उपलब्धियों से देश का सम्मान तो बढ़ा लेकिन लिम्बा राम की हैसियत नहीं बदली...उन्हें कभी घास काटने की नौकरी दी गई तो कभी चपरासी का काम करने को कहा गया.
बावजूद इसके उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है. लिम्बा राम कहते हैं कि भारतीय होने को लेकर वे गर्व महसूस करते हैं और एक आम नागरिक के रूप में ज़िंदगी ग़ुज़ारने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या क्रिकेट के बारे में भी ऐसी कल्पना की जा सकती है,...
क्या आप सोच भी सकते हैं कि राष्ट्रीय टीम के कोच की ये हालत होगी....अगर होगी..तो क्या होगा? क्या बस इतने भर से इस ख़बर को भूल जाना चाहिए कि लिम्बा अपनी हालत से संतुष्ट हैं....उन्हें किसी से गिला-शिकवा नहीं.
एक रोचक तथ्य ये है कि राष्ट्रीय तीरंदाज़ी संगठन के अध्यक्ष लोकसभा में विपक्ष के धाकड़ नेता विजय कुमार मल्होत्रा हैं....उनका कहना है कि लिम्बा ने कभी इस बारे में शिकायत नहीं की. यानी नेताओं के लिए खेल,....बस राजनीति चमकाने का एक ज़रिया भर हैं....अगर ये बात सच नहीं होती तो क्या लिम्बा के मुंह खोलने का इंतज़ार किया जाता? लिम्बा ने अब भी मुंह नहीं खोला है,...उन्होंने बस पत्रकारों के सवालों का जवाब दिया है.
९ जनवरी को उन्हें राष्ट्रीय कोच नियुक्त किया गया है...उनसे पहले ये ज़िम्मेदारी दक्षिण कोरिया से आयातित कोच के कंधों पर थी...लेकिन सरकार को उम्मीद है कि अगले साल दिल्ली में होनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए वो खिलाड़ियों को इस तरह प्रशिक्षित करेंगे कि पदकों की झड़ी लग जाए.
लिम्बा कुछ नहीं बोल रहे...उनसे जो कुछ हो सकता है वो करने में लगे हैं. जैसा कि अब तक वे करते आए हैं...लेकि क्या आप और हम हक़ीक़त को जानने के बाद अगले साल पदक-तालिका में भारत का नाम ढूंढ़ने को इतने उत्सुक होंगे?
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