शनिवार, 27 सितंबर 2008

अब तो जागो देश मेरे...

दिल्ली में आतंकियों ने इस बार फूल बाज़ार में बम रखे...फिर हुआ धमाका...आगे की कहानी वही....जो हर बार की है. यही हालत है अपने देश की. आतंकियों के आगे बेबस सी दिखती है सरकार....सलीके से जीने को लेकर गृहमंत्री पर मज़े लेती मीडिया...खुफिया एजेंसियों की बाल की खाल निकालते कलमकार ...ऐसे ही चल रहा है अपना देश...

रोजी रोटी से अलग सोचने की महानगरों में किसे फुर्सत है. मुसीबत में एक होने का जज्बा न्यूज़ स्टोरी के पैकेज में ही अच्छा लगता है....पर हकीकत इससे बहुत अलग है. टुकड़ों में बंटी हमारी ज़िंदगी एक-दूसरे से इतना दूर कर जाती है,..कि देश के लिए सोचने की तरफ तो ध्यान भी नहीं जाता.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे में बड़ी ताक़त बनकर उभरता है. पर कुछ समय के लिए...उसके तेवर मौसमी हैं,...पलटबाज़ी करने में ,..रंग बदलने में उसका सानी नहीं...कब क्या कह जाय,...कब क्या कर जाय कुछ ठिकाना नहीं. हिंदी में शब्द है,...अन्मयस्क...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बिल्कुल सटीक बैठता है. रोज-रोज का बंदर नाच उसके अंदर की कहानी ख़ुद ब ख़ुद बता रहा है.

पैसों ने पत्रकारों के दिमाग को कुंद कर दिया है...बस पैकेज नज़र आ रहा है...इसलिए दुधारी गाय की दुलत्ती भी सही जा रही है. जो लिखा जा रहा है,..उसका मक़सद कुछ और है. जो दिखाया जा रहा है उसका मक़सद कुछ और है...तय है कि इसके केंद्र में देश नहीं.

उधर,..आतंकी..हैं...वे बेफिक्र हैं...वो धमाकों के बाद टीवी के सामने बैठकर लाशों की गिनती करते हैं...वे जानते हैं कि सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में सबकी ख़ैर कौन कर सकता है. कितने आतिफ को गोलियों से भूनोगे,...कितने तौक़ीर की तलाश करोगे,...पहले जान तो लो इनकी तादाद कितनी है.

इंडिया गेट पर पुलिस लगाओगे,..तो कनाट प्लेस के कूड़ेदान में करेंगे धमाके,....वहां पुलिस लगाओगे तो फूल बाज़ार में करेंगे धमाके,...सड़क-चौक-चौराहे,...कूड़ेदान,..फूलदान..देश में हर जगह पहरा नहीं बिठाया जा सकता है...मेरे भाई.

देश का नासूर क्या है,....वो साफ है. पर कोई सच बोलने की हिम्मत नहीं करता है. इसी देश में एक तरफ महेश चंद शर्मा को शहीद बताया जाता है,..तो दूसरी तरफ उनके बदन में गोलियां उतारने वालों के समर्थन में हज़ारों लोग खड़े होते हैं.

इनके लिए क्या कहें...पर कुछ तो कहना होगा. सच बोलने की शुरूआत करनी होगी. गुनिए..चुनिए...फिर बोलिए...वक्त यही है.....अब तो जागो देश मेरे.

शनिवार, 6 सितंबर 2008

इस बर्बादी के किरदार ?

हंसने-मुस्कुराने पर वक्त पाबंदी नहीं लगाता,..इसके मौक़े हर जगह हैं. पर कहीं-कहीं चाह कर भी आप हंस नहीं सकते,..विश्वास नहीं होता....तो कोसी के प्रलय से पीड़ित लोगों के पास पहुंचिए...चारों तरफ दर्द ही दर्द. दर्द बहुत गहरा है इसलिए चीख भी ऊंची है.

पानी से भरे गांव में ऊंची जगह बनी एक घर की छत पर पचास लोग शरण लिए हुए हैं,...चौदह दिन बीत गए,...जो कुछ बचा था,...लोगों ने आपस में बांटकर जिंदा रहने की कोशिश की...पर बीमार पड़े एक युवक को बचाया नहीं जा सका. उसकी लाश को जलाने के इंतज़ाम नहीं हैं,...कोई नाव नहीं,...मोटर बोट झांकने तक नहीं आई...आकाश के रास्ते भी राहत की गड़गड़ागट सुनाई नहीं पड़ी...ऐसे में लाश वहीं रखी है,..तीन दिन हो गए. बदबू आ रही है...दो दिनों से हो रही बारिश के बाद कई बीमार हो गए हैं....वे भूखे हैं,..गंदा पानी पी-पीकर अब तक बचे हैं,..पर शरीर अब जवाब दे रहा है.,,..ये एक संदेश है,.. सहरसा में मदद की गुहार कर रहे एक पिता ने अपने बेटे का दो दिन पुराना ये संदेश जब पत्रकारों को सुनाया,...तो सबके रोंगटे खड़े हो गए.

कोसी की धारा ने कई किंवदंतियों को बदल दिया है,...किस कदर तकलीफ झेलकर मनुष्य ज़िंदगी की लड़ाई लड़ता है,...इससे जुड़ी कहानियां उत्तर-पूर्वी बिहार के प्रभावित इलाक़ों में सैकड़ों लोगों की ज़ुबान पर है....आप सुन नहीं पाएंगे,...दर्द को साझा करने वाली आपकी भावनाएं जवाब दे जाएंगी.

बहुत कुछ बदल दिया है कोसी ने,,...जो नहीं होना चाहिए था,..वो भी किया है कोसी ने,...कोसी उद्दंड हो गई है,...या उसने अपने ऊपर की जा रही ज्यादतियों का जवाब दिया है,...उसकी थाह लेने में अभी देर लगेगी...पर इतना तय है कि इस बार....उसकी धारा ने बिहार को समाजवाद का पाठ पढ़ा दिया है,...गरीब का कुछ कर नहीं सकती थी,....सो,..अमीरों को ग़रीब बना दिया है. पर क्या यही रास्ता था ?

ये सवाल इस नदी से मत पूछिए,...पूछिए इसे बांधने वालों से,...सवाल कोसी भी पूछ रही है,...कि उसका मान-मर्दन होता रहा,... पर नदी के तीर बसने वाले चुप क्यों रहे. जवाब सोचिए,..कहीं इस बर्बादी के किरदार आप और हम भी तो नहीं?

बुधवार, 3 सितंबर 2008

ना ही मोरा गइंठी में एको रूपैया.....

हे जगदम्बा,..तू ही अवलम्बा,..तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,...न ही कोई हित,..न ही परतीत,..न ही मोरा गइंठी में एको रूपैया....ये एक गीत है. नदियों को देवी समझ पूजने वाली बिहार की महिलाएं बाढ़ की इस विपदा में इसे गा रही हैं. अपनों की जान सलामत रखने के लिए,..कर जोड़कर,..कर रही हैं विनती. माँ तेरा ही सहारा है,..कोई और सुध लेने वाला नहीं है,...न कोई अपना है,..न जान पड़ता है....गइंठी (साड़ी के पल्लू के छोर को बांधकर बनी झोली) में अब एक रूपया भी नहीं.

इस गीत में दर्द है..बेबसी है..अंतिम समर्पण है,..साथ तमाम आशंकाओं के बीच बची-खुची आशा भी है. पर सिर्फ भगवान से. बाढ़ पीड़ित समझ रहे हैं...कि क्या होने वाला है. तीस लाख से ज्यादा लोगों की उम्मीदें अब सिर्फ ऊपरवाले पर ही टिकी हैं.

लोग ज़िंदा इसलिए हैं क्योंकि वो मरना नहीं चाहते. चारों तरफ पानी. छत पर भूखे-प्यासे लोग पड़े हैं. बच्चों को चुप भी कराना है. ख़ुद को भी बचाकर रखना है.

हफ्ते भर बाद हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट सुनकर लगता है,...जैसे जान में जान आई. पर हेलीकॉप्टर राहत का सामान गिराए भी तो कहां,...छोटी सी छत पर अनगिनत लोग जमा हैं. ऐसे में राहत सामग्री पहुंचाई नहीं जा सकती.

हेलीकॉप्टर वापस लौट जाता है. फिर सुबह-सुबह सुनाई देती है,...मोटर बोट की आवाज़. नीचे आए बोट को देखकर आपाधापी मच जाती है. बच्चों को कांधे पे उठाए महिलाएं,..तेज़ी से नीचे उतरती हैं. कमर भर पानी में भी सरपट भागती हैं. रोती-चिल्लाती....अंतिम हथियार,....ताकि बोट तक सबसे पहले पहुंच जांय.

इतने लोगों के लिए बोट नाकाफी है,..अब क्या किया जाय. फिर ढाढ़स मिलता है,..हम जल्द आ रहे हैं.....पर इतना धीरज किसे है. ..बाक़ी बचे लोग कलपने लगते हैं. पर कोई चारा नहीं. अब अगली बारी कब आएगी. कोई नहीं जानता. तब तक कैसे जिएं लोग.

शौच तक की दिक्कत है. सालों ज़िंदगी जिस समाज में जी,...अचानक लाज-शर्म को कैसे छोड़े कोई. नीचे पानी ही पानी है...और यहां...लोग ही लोग....

बार-बार लोग सोचते हैं,..ये मौत से भी बदतर ज़िंदगी है. पर मरने की कोई नहीं सोचता...बच्चों का मुंह देख कर जीने का दिल करता है. ख़ुद के लिए नहीं इनके लिए.

बुज़ुर्गों का कोई पूछनहार नहीं. रोते हुए बच्चों के आगे वे अपनी भूख,...अपनी कमज़ोरी का ज़िक्र करने तक की हिम्मत नहीं करते. चुप रहते हैं. लोगों को हौसला क्या दें. उनका कौन सा अनुभव इस मुश्किल से उबरने का दूसरों को रास्ता दिखाएगा. वो तो पीड़ितों की संख्या बढ़ाने वाले अवांछित तत्व हो गए हैं.

वे बस गीत गा सकते हैं,....हे जगदम्बा....तू ही अवलम्बा.....तू ही मोरी भक्ति की सुधि लेवैया,,....आस गए तेरी दासी हूं मैं प्रभु,..डूबल नाव तुम्ही हो खेवैया,...

सोमवार, 1 सितंबर 2008

ये कैसी राष्ट्रीय आपदा है ?

कभी-कभी ज़िंदगी से मौत बेहतर लगने लगती है. ये वो स्थिति है जब कुछ नहीं सूझता. कोई रास्ता नज़र नहीं आता. सब कुछ बर्बाद होते देखने के बाद जीने की इच्छा ख़त्म होने लगती है. उड़ीसा में साइक्लोन के बाद ज़िंदा बचे लोगों की कहानियां ऐसी ही थीं. तमिलनाडु में सूनामी के बाद सब कुछ गंवा चुके लोग मौत मांगते नज़र आए. ये त्रासदी के बाद का समां होता है. गुजरात में भूकंप के बाद प्रभावित लोगों की हालत ऐसी ही थी,... और अब बिहार.... कोसी के जलप्रलय के बाद की स्थिति ऐसी ही है.

पर तस्वीर कुछ अलग है. क्योंकि सौ करोड़ से अधिक लोगों का देश बाढ़ में फंसे अपने पचास लाख लोगों को बचाने के लिए चार हैलीकॉप्टर का जुगाड़ कर पाया है. क्योंकि बाढ़ में फंसे इन लोगों की मदद के लिए बमुश्किल दस लोगों को बिठाने वाले सौ मोटर बोट का इंतज़ाम कर पाया है हमारा देश.

राहत के इंतज़ाम के लिए राज्य सरकार ने मुस्तैदी न दिखाई होती. तो भगवान मालिक था. विश्वास करना मुश्किल है कि ये घोषित राष्ट्रीय आपदा है. मांगने पर ही सब मिले तो काहे की राष्ट्रीय आपदा. ये न तो साइक्लोन है और न सूनामी और न ही भूकंप. कुछ घंटों की जानलेवा आपदा नहीं है ये सैलाब. और न ही इसका असर तुरत-फुरत दिखेगा. प्रभावित इलाक़ों में लोग पीढ़ियों पीछे हो गए हैं.

उत्तर बिहार में बाढ़ इसलिए नहीं आती कि यहां बारिश ज्यादा होती है....इसलिए भी आती है क्योंकि यहां किसान रहते हैं. क्योंकि इनके पास आर्थिक ताक़त नहीं. इसलिए क्योंकि नेपाल के साथ यहां के लोगों का रोटी-बेटी का संबंध है. इसलिए क्योंकि यहां के लोग सामाजिक तौर पर सबसे ज्यादा जागरूक हैं. वे अकेले अपने हित के लिए नेपाल के साथ जलसंधि तोड़ने को लेकर आंदोलन नहीं कर सकते. पर सरकार का क्या धर्म है. राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के बाद नेपाल ने कैसे छोड़ दिया दो लाख क्यूसेक से ज्यादा पानी जिससे स्थिति और बिगड़ रही है. कोई आपत्ति नहीं,..कोई विरोध नहीं. क्या कर रही है केंद्र सरकार.

सेंसेक्स के आंकड़ों से विकास का खाका खींचने वालों के लिए बिहार की बाढ़ बेमतलब की चीज़ है. चूड़ा-गुड़,...दिया- सलाई,..ज्यादा से ज्यादा कुछ हफ्ते टपकाओ और चैन की नींद लो. राहत का मतलब यही है.
नीति-निर्माताओं के लिए कोसी-कमला-गंडक अंजानी सी चीज़ हैं और बिहार जैसे राज्य बौद्धिक भारत के लिए डंपिंग यार्ड.

सोच ऐसी कि यहां था ही क्या जो बर्बाद हो गया. किस उद्योगपति का कौन सा उद्योग बह गया. किसकी पूंजी लुट गई. वो तो आबादी ने वोट की ताक़त दे दी है वरना,...अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आने की ज़रूरत भी न पड़ती. क्योंकि भूमंडलीकरण के इस दौर में बिहार के लोग सेंसेक्स की भाषा नहीं समझते. क्योंकि बिहार तो देश के विकास के ग्राफ की रफ्तार रोकता है. इसके रहने न रहने से किसको फर्क पड़ता है.

अभी बाढ़ की ख़बर सामने है,....बर्बादी की पूरी ख़बर आने में देर है. सरकार चूड़ा-गुड़ पहुंचा रही है..वो इससे ज्यादा कुछ और नहीं कर पाएगी,..तय मानिए...लोग खड़े होंगे तो अपने भरोसे. अपनी तमाम मुश्किलों से लड़ेंगे तो अपने भरोसे. आंखों के आंसू भी ख़ुद पोछेंगे और पसीना भी.