शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

आरएसएस ने बीजेपी को रामभरोसे छोड़ा!



बीजेपी में मचे बवंडर को लेकर सबकी निगाहें आरएसएस पर टिकी हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की बहुप्रतीक्षित प्रेसवार्ता पर सबकी नज़र है. लेकिन अगर संघ के अब तक के सफ़र को देखें तो कहीं से नहीं लगता कि मोहन भागवत कुछ भी ऐसा कहेंगे जिससे बीजेपी और संघ के रिश्तों को लेकर कोई नई चर्चा शुरू होगी. संघ की तरफ से साफ तौर पर यही कहा जाएगा कि बीजेपी एक राजनीतिक संगठन है और संघ इसके आंतरिक मामलों में कोई दख़ल नहीं देगा. अगर सवाल बीजेपी को संभालने को लेकर उठेगा...तो कहा जाएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के स्वर उठते रहते हैं और इसमें कुछ भी नया नहीं है और पार्टी नेतृत्व इस संकट से उबरने में पूरी तरह सक्षम है. ये संघ का पुराना ढर्रा है. सभी जानते हैं कि बीजेपी,..संघ के विचारों को राजनीति के क्षेत्र में आम लोगों तक पहुंचाने का काम करती है...और इसका पूरा संगठन संघ के फॉर्मूले पर काम करता है. सालों से इस बात को लेकर मीडिया में ख़बरे छपती रही हैं..कि बीजेपी संघ के इशारों पर काम करती है. इसमें बहुत हद तक सच्चाई भी है....इसके उलट सच्चाई संघ की उन बातों में भी है....जिसके मुताबिक़ बीजेपी पूरी तरह से एक स्वतंत्र राजनीतिक दल है...लेकिन मौजूदा दौर में ये बातें अब पुरानी सी नज़र आ रही हैं. उस दौर में ये बात सही लगती थी,..जब वाजपेयी और आडवाणी जैसे नेताओं के कुशल नेतृत्व में पार्टी नेता अनुशासन के दायरे में रहा करते थे...विरोध के स्वर उठते थे..लेकिन वो संयमित हुआ करते थे. लेकिन बदले हुए वक्त में जब सत्ता का कई साल स्वाद चखने के बाद पार्टी नेताओं के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है...ऐसे में संघ का सहारा बेहद ज़रूरी लग रहा है. बीजेपी की विचारधारा बुनियादी स्तर पर भले ही पुरानी हो..लेकिन पार्टी नेताओं के आचार-व्यवहार में ज़मीन-आसमान का फर्क आ गया है. ऐसे में संघ को भी लगता है कि संक्रमण के इस काल में कुछ न कुछ करना ज़रूरी है...लेकिन डर इस बात का भी है...कि खुलकर इस बात को क़बूलने के बाद उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करेगा...और सभी इस बात को समझ जाएंगे कि संघ और बीजेपी में बस नाम भर का ही अंतर है. ज़ाहिर है ऐसे में अंदरुनी तौर पर चाहे जो हो...बाहरी तौर पर सरसंघचालक बीजेपी को लेकर सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कहेंगे. ये लगभग तय है.