शनिवार, 21 मार्च 2009

संघ की नई कमान

मोहनराव भागवत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरसंघचालक मनोनीत किया गया है. कुप्पाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन के दायित्व छोड़ने की घोषणा के साथ ही भागवत दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक संगठन के मुखिया बन गए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बाक़ी संगठनों से एक मायने में बिल्कुल अलग है...और वो है अपनी विचारधारा के प्रति समर्पण.

सन् 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में इसकी स्थापना हुई थी...तब से अब तक 80 साल से ज़्यादा ग़ुज़र चुके हैं...लेकिन समय के साथ उसकी विचारधारा नहीं बदली. यहां तक की गिनती के परिवर्तनों को छोड़ दें तो संघ का गणवेश भी तकरीबन वही रहा...जो 1925 में था। कई लोगों को ये देखकर आश्चर्य होता है। नई पीढ़ी के युवाओं की बड़ी संख्या संघ से ख़ुद को जोड़ने में इसे एक बाधा की तरह देखती है....बावजूद इसके संघ ने इसमें कोई तब्दीली नहीं की।

भागवत की छवि की बात करें तो वह उदारवादी रही है. उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में संघ के प्रचारक के रूप में विभिन्न ज़िम्मेदारियों को निभाया. कोलकाता और पटना में भी वे काफी समय रहे. सरकार्यवाह बनाए जाने के बाद पटना में अपने अभिनंदन समारोह में उन्होंने विवेकानंद की पंक्तियों को उद्धृत किया था....”शक्तिशाली भारत का विचार करने पर हमारे सामने जिस देश की परिकल्पना उभरती है...उसके मुताबिक़ भारत का शरीर इस्लाम का होना चाहिए जबकि हृदय हिंदू.”
संघ के मुसलमानों के प्रति प्रचलित दृष्टिकोण से ये बात काफी अलग दिखती है. शरीर और हृदय की उपयोगिता को लेकर बहस-मुबाहिसे की पूरी गुंजाइश है लेकिन इससे एक बात साफ हो जाती है कि वैचारिक रूप से मुसलमानों को संघ अवांछित नहीं मानता।
संघ की शाखाओं की गिरती संख्या को क़ाबू में करना भागवत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। विभिन्न सामाजिक कार्यक्षेत्रों में संघ परिवार के संगठनों ने अच्छी-ख़ासी प्रगति की है...लेकिन जिस शाखा के माध्यम से संघ अपने परिचय का दायरा हर दिन बढ़ाता रहा है...उसकी संख्या तेज़ी से घटी है। इसको लेकर आरएसएस के भीतर हलचल है. शाखा संघ के विस्तार का आधार रही हैं...और इसकी अनदेखी किसी तरह से नहीं की जा सकती।
संघ किसी अकेले व्यक्ति के इशारे पर नहीं चलता है इसलिए इसकी संभावना न के बराबर है कि भागवत के आने से संघ के वैचारिक स्वरूप या उसके तेवर पर कोई फर्क पड़ेगा…लेकिन कोई भी संगठन अपने नेतृत्व से अप्रभावित नहीं रहता. इस लिहाज से भागवत सबकी नज़रों में रहेंगे.

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

साध्वी का समर्पण !

राष्ट्रीय राजनीति में समान विचारधारा का हवाला देकर उमा भारती ने आडवाणी के समर्थन का ऐलान किया है. ये कुछ उसी तरह है कि दुश्मन से मुक़ाबले में हारने की सूरत में अहिंसा का दामन पकड़ लिया जाय. वरना क्या मुश्किल थी कि वो इस बार भी अपनी ताक़त पर मैदान में उतरतीं. लगता है पार्टी की एक और क़रारी हार की आशंकाओं की वजह से उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा.

भाजपा से अलग होने के बाद उमा ने अब तक चैन की सांस नहीं ली है. तमाम मेहनत के बाद भी वो न तो अपनी भारतीय जनशक्ति पार्टी को मध्यप्रदेश में एक विकल्प के रूप में खड़ा कर पाईं और न ही राष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थान सुरक्षित करने में क़ामयाब रहीं. भाजपा से उमा को जो पहचान मिली थी वो भी अब धुंधली पड़ती जा रही है. नई पार्टी बनाना तो उमा को आसान लगा था लेकिन अब इसे चलाना मुश्किल हो रहा है.

हिंदुत्व की लीक पर चलकर राजनीतिक क़ामयाबी हासिल करने की डगर उन्हें कठिन लग रही है. दूसरे रास्ते पर वो जाना नहीं चाहतीं...क्योंकि इसके बाद रही सही लोकप्रियता भी ख़त्म होने का ख़तरा है. ऐसे में साध्वी के सामने गिने-चुने विकल्प बचे थे और उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के समर्थन की घोषणा कर डाली. अब उनके इस ऐलान के अंदरखाने का सच क्या है...उसके लिए कुछ और इंतज़ार करना होगा. लेकिन इतना तो साफ है कि साध्वी अब समर्पण की राह पर हैं.

सोमवार, 9 मार्च 2009

जुग जिए से खेले फिर होली...होली है...

होली आ चुकी है...पर हुड़दंग नदारद है. दिल्ली में बिन हुड़दंग के होली देख तो सकता हूं,...पर महसूस करना मुश्किल है. अपने कमरे और फ्लैट तक सिमटी दुनिया में एक दिन की छुट्टी की ख़ुशी..होली की मस्ती पर भारी पड़ती है. इससे ज़्यादा चाह किसी की नहीं. वरना होली क्या...दीवाली क्या. जेब में बस पैसे रहने चाहिए. लेकिन गांवों में होली खेलने से बड़ी ख़ुशी दूसरी नहीं होती...इसे साल का सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाता है. हर ज़ुबान से सुनेंगे...जुग जिए से खेले फिर होली...होली है. मतलब ये कि ज़िंदगी सलामत रही तभी होली दोबारा खेलेंगे...इसलिए जी-भर की मस्ती आज ही होनी चाहिए।

दोपहरी में हाइवे किनारे गिरे पलाश के फूलों को देखकर एकबारगी याद आई इसकी अहमियत. स्कूलों में सुना था पलाश के फूलों से रंग बनाए जाते हैं. पर यहां पलाश को कोई पूछने वाला नहीं. इसके फूल टायरों तले कुचलते चले जाते हैं...कोलतार की सड़क पर इन फूलों के बीच पड़ा बीज अपना अस्तित्व खो देता है..नए पलाश की कोई आस नहीं बचती।

ठीक इसी तरह ज़िंदगी की रफ्तार में हमें याद नही रहता कि अपनी विरासत को हम किस तरह भूलते जा रहे हैं...जिस मस्ती पर लगाम हमारे लिए बर्दाश्त से बाहर थी...घर के बड़े के ख़िलाफ बालमन विद्रोह कर बैठता था...आज बड़े होने पर उसे भूल जाना ही हम बेहतर समझते हैं. यही वजह है कि हमारी नई पीढ़ी को उसकी पहचान पता नहीं।

दिल्ली में आज अगर पुरबिया होली नहीं दिख रही...तो दोष किसका है? दरअसल हमने ही तो अपने बच्चों को जड़ों से दूर रखा...हाल ये हुआ कि भरे-पूरे घर में तमाम लोग ख़ुश होते हैं...लेकिन फ्लैट की खिड़की से बाहर झांककर हमारी सूनी आंखें अपने लिए ख़ुशी ढूंढ़ती रहती हैं...होली फिर आ गई है...पर होली खेलने का मतलब हमसे दूर हो गया है।

लेकिन....गांवों में ऐसा नहीं है...पछिया बयार चाहे जितनी बह रही हो...लेकिन संस्कार,..सलूक और ठेठ देसी अंदाज़ को मुरझाना इसके बस की बात नहीं. बाहर में यही अखरता है. कुछ भी पा लें आप...गांव तो गांव ही है...वो दूर ही रहेगा. चलिए एक दिन के लिए ही सही...उसकी याद की जाय...और मौक़ा तलाशा जाय अबकि छुट्टी में जड़ों की तलाश का.