सोमवार, 1 दिसंबर 2008

ये ख़बर थी कुछ अलग...


ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई
रात से सुबह हुई,....शाम यूं ही ढल गई
फिर अल्लसुबह से रात तक ..
कुछ नहीं बदल सका
धुएं की धुंध बीच का
मंज़र रहा दबा-दबा..
इस शहर की बानगी...अबके गांव तक पहुंच गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई

यूं जो छोड़ के चले,
हाथ जोड़ के चले
होठ बंद थे मगर,
बिन कहे भी कह चले
जी सको तो इस तरह,..मर सको तो इस तरह
मेरी तो आज ज़िंदगी,..मौत से संवर गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई

3 टिप्‍पणियां:

तरूश्री शर्मा ने कहा…

जी सको तो इस तरह,..मर सको तो इस तरह
मेरी तो आज ज़िंदगी,..मौत से संवर गई
ये ख़बर थी कुछ अलग,.. हर नज़र ठहर गई
औह....गजब बॉस। आपकी इस कविता लेखन की क्वालिटी के बारे में आज पता चला। संवेदनशील मन की संवेदनाओं को साधुवाद।

mehek ने कहा…

marmik rachana,ankhen num ho gayi,shahido ko naman

महुवा ने कहा…

अमित,बहुत अच्छा लगा तुम्हारा ब्लॉग पढ़कर,कम से कम ये तो पता चला कि तुम्हारे अंदर की संवेदनाएं ज़िन्दा है,वर्ना आसपास देखने पर सिर्फ भीड़ नज़र आती है,इंसान नहीं........
और सबसे अच्छी बात ये है कि तुम इन संवेदनाओं को महसूस करके बहुत खूबसूरत शब्दों में पिरो पाते हो...बहुत भयावह था..वो सब जो हम सभी ने झेला....लेकिन तुमने बहुत अच्छी तरह से शब्दों में उतारा है।