रविवार, 10 मई 2009

..तो क्या जनादेश बेमतलब है?


चुनावी नतीजे अभी नहीं आए हैं लेकिन सरकार बनाने की जोड़-तोड़ शुरू है. जनता किस दल के पक्ष में और किसके विरोध में अपने नतीजे सुनाएगी…ये भविष्य के गर्भ में है लेकिन नेताओं को क़रार नहीं. बड़बोलेपन पर लगाम लग चुकी है. सबकी आवाज़ मुलायम हो गई है ताकि आगे ज़्यादा बेशर्मी न दिखानी पड़े.

लड़ाई के मैदान में जंग जीतने या हारने की बात होती है लेकिन यहां तो मैदान में ही सुलह की बात हो रही है. सत्ता सबसे ऊंची चीज़ हो गई है...विचारधारा का बखान करने वाले दलों की प्रतिबद्धता बस एक शब्द के आस-पास सिमट कर रह जाती है...कहीं वो धर्मनिरपेक्षता है तो कहीं तुष्टिकरण. ये जो कुछ भी हो लेकिन सही मायने में लोकतांत्रिक चलन नहीं माना जा सकता.

किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वो जिन विचारों में विश्वास रखता है...उसके आधार पर हासिल की गई सफलता से ही संतुष्ट हो. यहां झुकने की बात तो छोड़िए लोग कुछ भी करने को तैयार दिखते हैं. कहीं कोई दूसरे पर दबाव बनाने के लिए तीसरे का नाम ले रहा है...तो कोई नए शब्दों को गढ़ने में लगा है.

लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति यही कहेगा कि ये जनादेश का सम्मान नहीं है. अगर हम मतदाताओं की इच्छा का सम्मान करते हैं तो फिर उसके फैसले को भी सर माथे पर रखना चाहिए. जीतने के बाद सरकार बनाने की बात या इसके लिए कोशिश का मतलब तो समझा जा सकता है...लेकिन इससे पहले ही सरकार में अपना बर्थ सुनिश्चित करने की गारंटी को क्या कहेंगे. लेकिन हम सब यही होता हुआ देख रहे हैं.

कहा जा सकता है कि राजनीति में जनता की राय की कोई अहमियत नहीं रह गई है. नेता चाहें तो उसकी ना,...को हां में आसानी से बदला जा सकता है. इसे तय मानिए.

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

राजसत्ता तो पूंजी की है। कोई दल आए उसे उस की ही चाकरी करनी है।